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१३६७ : साहित्य में सत्यं शिवं सुन्दरं के संस्कर्ता
'निर्ग्रन्थ प्रवचन' एक महत्वपूर्ण कृति
पूज्यश्री जैन दिवाकरजी महाराज द्वारा रचित साहित्य का बहुभाग चरित्र साहित्य है और उसमें जिन ग्रन्थों के जो-जो नाम हैं, उन-उन महापुरुषों के वर्तमान भव का वर्णन करने के साथ पूर्व-भवों में किये गये शुभाशुभ कर्मों से प्राप्त इष्ट-अनिष्ट संयोग, सूख-दुःखों आदि का भी उल्लेख किया है । उन सबकी कथावस्तु तो उन ग्रन्थों को पढ़ने से ज्ञात होती है । लेकिन इन सब. में 'निम्रन्थ प्रवचन' महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यद्यपि प्रस्तुत कृति की मूल गाथायें आगमों से संकलित की गई हैं, लेकिन इनके संकलन, चयन, संयोजन तथा उन पर भाष्य विवेचन करने में रचना-शिल्प का सौन्दर्य एवं मौलिक विचार अपेक्षा से अधिक व्यक्त हुए हैं। इसीलिये उसका संक्षिप्त परिचय यहां प्रस्तुत करते हैं।
जैन समाज में 'गीता' एवं 'धम्मपद' के समान एक संक्षिप्त किन्तु सारभूत ग्रन्थ की आवश्यकता वर्षों से अनुभव की जा रही थी। अनेक विद्वानों ने इस कमी की पूर्ति के लिए प्रयास भी किये। उनके वे प्रयत्न प्रशंसनीय हैं और श्रम भी सम्माननीय है, लेकिन इन सब प्रयत्नों में पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज का प्रयत्न अधिक व्यापक और गम्भीर था।
आपने गीता की तरह अठारह अध्यायों में 'निन्ध प्रवचन' का संकलन किया है। उन अठारह अध्यायों के नाम इस प्रकार हैं-षड् द्रव्य निरूपण, धर्म स्वरूप वर्णन, कर्म निरूपण, आत्मशुद्धि के उपाय, ज्ञान प्रकरण, सम्यक्त्व निरूपण, धर्म निरूपण, ब्रह्मचर्य निरूपण, साधु धर्म निरूपण, प्रमाद परिहार, भाषा स्वरूप, लेश्या स्वरूप, कषाय स्वरूप, वैराग्य संबोधन, मनोनिग्रह, आवश्यक कृत्य, नरक-स्वर्ग-निरूपण, मोक्ष स्वरूप। इन अध्यायों में उन-उनके योग्य गाथाओं का चयन, आचारांगसूत्र कृतांग, स्थानांग, समवायांग आदि-आदि बत्तीस आगमों में से है।
पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज इस ग्रन्थ को इतना महत्वपूर्ण मानते थे कि प्रायः प्रतिवर्ष 'निर्ग्रन्थ प्रवचन सप्ताह के अन्तर्गत वाचना करके इसके गूढार्थों को सरल सुबोध शैली में श्रोताओं को समझाते थे। प्रस्तुत कृति चयन है, लेकिन इसमें हम श्री जैन दिवाकरजी महाराज के विचारों, अभिरुचियों और अन्तरात्मा के दर्शन करते हैं कि भौतिक शरीर में रहते हुए भी उनका 'मैं' क्या था ? यही कारण है कि उसके प्रकाशन की महत्ता की मुक्तकण्ठ से सराहना हुई थी। यदि आज का युग और उनके अनुयायी वर्ग हम 'जिन खोजा तिन पाइयां' की नीति के अनुसार प्रेरणा लेकर कर्तव्य तत्पर हों, तो इससे श्री जैन दिवाकरजी महाराज की महत्ता की अपेक्षा स्वयं की महानता, गौरव सिद्ध करेंगे।
जैन दिवाकरजी महाराज की ग्रन्थ रचना की शैली
वर्तमान में ग्रन्थ रचनाकारों की शैली का कोई निश्चित रूप नहीं है। लेखक किसी भी बिन्दु से अपने ग्रन्थ लेखन को प्रारम्भ कर देता है। लेकिन जिसे साहित्य कहा जाता है वह निर्विघ्न ग्रन्थ की समाप्ति और अपने अभिधेय को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने की योग्यता-क्षमता अजित करने की दृष्टि से मंगलाचरण के रूप में ईष्ट देव को स्मरणपूर्वक प्रारम्भ किया जाता है। प्रारम्भ में किसी-किसी वाक्य या पद का अवश्य उल्लेख किया जाता है, जो मंगलाचरण रूप होता है।
श्रद्धय श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने अपनी रचनाओं के प्रारम्भ में इसी शैली को अपनाया है। उन्होंने सिर्फ देव या गुरु या शास्त्र का पुण्य स्मरण न करके तीनों को नमस्कार और ग्रन्थ का नामोल्लेख करते हुए रचना प्रारम्भ की है।
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