________________
॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ४ :
गम्भीर ज्ञान
प्रसिद्ध वक्ता और वाग्मी होने के साथ-साथ जैन दिवाकरजी महाराज का ज्ञान भी बड़ा गहन और गम्भीर था। जैन आगमों में तो वे निष्णात थे ही, साथ ही साथ वैदिक दर्शनों-वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय आदि का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था । गीता में गहरी पैठ थी। कुरानशरीफ और बाइबिल का भी आपने अध्ययन किया था । पैनी और तलस्पर्शी बुद्धि से उन्होंने इन ग्रन्थों के रहस्य और हार्द को हृदयंगम कर लिया था। उनके ज्ञान में अनुभव की तेजस्विता थी। उनके शब्द कण्ठ से नहीं, हृदय से निकलते थे। इसलिए उनमें प्रभावकता थी। लेकिन अपने इस विशाल और सूक्ष्म अध्ययन का उपयोग उन्होंने कभी भी विरोधी को नीचा दिखाने के लिए नहीं किया। उनके ज्ञान के पीछे पवित्र लोकहितकारिणी भावना बनी रही। सरलहृदयी सच्चे सन्त
जैन दिवाकरजी महाराज सच्चे सन्त थे। भारतीय संस्कृति में सन्त के लिए सरल हृदय और मधुर स्वभाव आवश्यक माना गया है। उसे निष्कपट होना चाहिए। साधना से प्राप्त शक्तियों द्वारा चमत्कार प्रदर्शन में नहीं पड़ना चाहिए। अनेक सन्त चमत्कारों के मोह में पड़ जाते हैं। यश
और मान की कामना में वे अपनी चमत्कारिक शक्तियों द्वारा राजाओं तथा सामान्य जनता को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं । लेकिन आपका हृदय सरल था, स्वभाव मधुर था और वाणी कोमल । उनका उद्देश्य किसी को प्रभावित करना नहीं था वरन् सबको सुख-साता देना था। यह बात दूसरी है कि उनकी सहज साधना के प्रभाव से भक्तों की आधि-व्याधि और उपाधि स्वयं ही दूर हो जाती थी, जैसे सरोवर के निकट जाने से स्वतः ही ग्रीष्म की दाहकता का प्रभाव कम होकर शीतलता व्याप्त होने लगती है। वे निर्दोष श्रमणचर्या का पालन करते हुए अहिंसा की ज्योति जगाते रहे। करुणा के आगार
आपका हृदय करुणा का आगार था। णवणीयतुल्लहियया-नवनीत के समान कोमल हृदय वाले थे। दीन-दुखियों को देखकर उनका हृदय करुणा से भर जाता था। वे किसी को भी पीडित व दुखी नहीं देख सकते थे। कष्ट देने वाले और कष्ट पाने वाले दोनों पर ही उन्हें दया आती थी । अपने हृदय की करुणा से प्रेरित होकर ही उन्होंने शिकारियों, मांसाहारियों और दुर्व्यसनियों का हृदय परिवर्तन किया था। उनकी प्रेरणा से हजारों मानवों और पशुओं का जीवन सुखी हआ था। मन, वचन एवं कर्म-तीनों से उन्होंने करुणा पाली। उनका घोष थादया पालो। कमी उन्होंने कर्कश वचन नहीं बोले ।
उनकी जिह्वा, उनकी वाणी ने किसी की आत्मा को दुखाया नहीं, वरन् सबको आत्मकल्याण और सदाचार की ओर उन्मुख किया। अपनी विश्वव्यापिनी करुणा द्वारा उन्होंने सबको सुख तथा उन्नति के पथ पर अग्रसर ही किया । निर्भीक और दृढ़
मधुर स्वभाव तथा करुणासागर होते हुए भी उनके हृदय में दृढ़ता और निर्भीकता का वास था। उनके संकल्पों और शब्दों में वज-सी दृढ़ता थी। इस दृढ़ता के कारण ही उनके व्यक्तित्व और वाणी में आकर्षण और प्रभाव था। निर्भीकता प्रभावोत्पादिनी होती है। ढिलमिल चरित्र वाले व्यक्तियों में कोई आकर्षण नहीं होता। विश्वास ही विश्वास का जनक होता है। जिसे स्वयं अपने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org