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| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ |
: ३ : एक शाश्वत धर्म दिवाकर
को अन्त्यज व पतित मानने वाले व्यक्तियों में जब स्वयं के विकास और कल्याण की उमंग उठे, आत्म-विश्वास जगे और सत्संकल्प कर उस ओर बढ़ने की वृत्ति पैदा हो, तभी सच्चा अन्त्योदय हो सकता है। श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने यही तो किया । उनकी प्रेरणा से खटीकों, कलालों, चमारों, मोचियों, भीलों आदि ने मांस-मदिरा आदि कुव्यसनों का त्याग किया; परिणामस्वरूप उनकी शारीरिक, आर्थिक, आत्मिक सभी प्रकार की उन्नति हुई। वे अपने पैरों पर खड़े हो गये। उनके बुरे संस्कार बदले और उनमें स्वयं का उत्थान करने का मनोबल जागृत हुआ । कर्ज लेने वाले कर्जा देने लगे । गंगापुर, जोधपुर, मांडल आदि अनेक स्थानों के ज्वलन्त प्रमाण मौजूद हैं । आज उन लोगों का जीवन सुख-शान्ति से भरपूर है। वे जैन दिवाकरजी महाराज का हृदय से आभार मानते है और हजारों मुखों से उनके उपकारों का बखान करते हैं। जैन दिवाकरजी महाराज ने ऐसा अन्त्योदय किया जिससे उनका ही नहीं, उनकी पीढ़ियों तक का उद्धार हो गया। उनकी सन्ताने भी सुख के झूले में झूल रही हैं ।
सद्गुण प्रचार की नयी शैली श्री जैन दिवाकर जी महाराज ने जनता में सदाचार एवं अहिंसा के प्रचार के लिए नई शैली अपनाई। तत्कालीन धर्म-प्रचारकों की खण्डन-मण्डन प्रधान शैली से हटकर उन्होंने जनता को सरल और जनभाषा में प्रेरणा दी । उनकी सत्यपूत वाणी ने जन-जन के हृदय को स्पर्श किया । उनके शब्दों में आडम्बर नहीं, हृदय का घोष होता था। परिणामस्वरूप श्रोता की हार्दिक कोमल भावनाएँ सहसा झंकृत हो जाती और वह स्वयं ही हिंसा आदि दुर्गुणों से विरक्त होकर उनका त्याग कर देता।
वाणी का प्रभाव मानव हृदय पर जितना प्रभाव वाणी का पड़ता है, उतना दूसरी किसी वस्तु का नहीं; होनी चाहिए रसना रस भरी ।
श्री जैन दिवाकर जी महाराज की वाणी में यह सहजगूण था । जो एक बार उनका प्रवचन सुन लेता वह बार-बार सुनने को लालायित रहता । उस पर यथेष्ट प्रभाव पड़ता । वह सदा के लिए आपका भक्त बन जाता। उनके शब्दों में ऐसा आकर्षण था कि राह चलने वाले रुक जाते और एकाग्र होकर सुनते रहते । एक अंग्रेज कर्नल १० मिनट सुनने का संकल्प करके आया और ५० मिनट तक भाव-विभोर होकर सुनता रहा। रावजी ने मोटर रुकवाई और साधारण जनों के साथ बैठकर प्रवचन सुनने लगे। चोरों ने सूना तो चौरकर्म त्याग दिया, शराबियों ने शराब छोड़ दी, शिकारियों ने तीरकमान खूटी पर लटका दिये, धर्म के नाम पर होने वाला मूक पशुओं का वध बन्द हो गया, मांसाहारियों ने मांसभक्षण त्याग दिया-यह सब क्या था ? वाणी का ही तो प्रभाव था।
वे वाणी का मोल खुब जानते थे, इसीलिए तो उनकी वाणी इतनी प्रभावशालिनी थी। उनके शब्दों का राजा और रंक, ब्राह्मण और शूद्र, हिन्दू और मुसलमान, पारसी और ईसाई, जैन और जैनेतर, अग्रवाल और ओसवाल, भारतीय और यूरोपीय सभी पर अचूक प्रभाव पड़ता था। सभी गद्गद् हो जाते थे। उन्हें लगता था जैसे उनका ही हृदय बोल रहा हो । यही तो शब्द-शक्ति की पराकाष्ठा है कि सुनने वाला उसे अपने ही हृदय की आवाज समझे।
यह गुण जैन दिवाकरजी महाराज की वाणी में भरपूर मात्रा में था, इसीलिए तो वे प्रसिद्धवक्ता और वाग्मी कहलाए।
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