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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : ३१६:
इनके मूल में ही क्या-आध्यात्म, योग और प्रेम की पीर के संदेश को जनता-जनार्दन में यदि किसी ने असरकारी रूप में प्रचारित-पारित किया तो वे संत ही थे, पहंचे हए संत ।
तुकनगीर एक हिन्दू संत और शाहअली एक मुसलमान फकीर। दोनों ने लोककथावार्ता बातों-गाथों को लेकर जनगीतों की रचना करते, हाथों में चंग पर गाते चल पड़े, लोकबस्ती में और इनके साथ जुड़ता गया लोक । गाने-बजाने-नाचने वालों का एक समूह तैयार होता रहा । पर ये तो दोनों पहुंचे हुए संत थे। धीरे-धीरे इनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि अपने निवासस्थान चंदेरी (मध्यप्रदेश) के महाराज ने इन्हें अपने दरबार में याद किया। दोनों पहुंचे और अपनी आपसीखी गायकी सुनाई। महाराज इन्हें सुन इतने अत्यधिक प्रसन्न हुए कि सम्मानस्वरूप तुकनगीर को अपने मुकुट का तुर्रा और शाहअली को कलंगी मेंट कर दी।
फिर क्या था ! महाराज की छाप ने इन्हें और लोकप्रिय कर दिया। आसपास इनका सम्मान बढ़ने लगा। लोग श्रद्धा और भक्ति के वशीभूत हो इनके पास आने-उमड़ने लगे। दोनों अपनी लावणियाँ बनाते, ख्याल गायकियां गाते तो होते-होते इनके भक्तों, शिष्यों ने भी इनकी इस बेल को गांव-गांव घर-घर पहुंचा दिया। इसका प्रचार और इतनी जबर्दस्त लोकमान्यता रही कि मध्यप्रदेश से उठी यह लहर ब्रज-उत्तरप्रदेश और राजस्थान में भी उसी हरावलता के साथ फैली। नीमच में तो इसके खास अखाड़े कायम हुए। अच्छे खिलाड़ी उस्ताद लेखक और शौकिया लोगों ने इन ख्यालों की मण्डलियाँ तैयार की और एक होड़-सी मच गयी ।
मुनिश्री चौथमलजी महाराज की जन्मभूमि नीमच इन्हीं ख्यालों के अच्छे खिलाड़ियों का घर था । एक विषय कविता का कोई छेड़ देता कि तत्काल उसका उत्तर उसी विषय, काव्य, छंद लहजे में देना होता था। इस तरह के प्रतिस्पर्धात्मक अखाड़े, लावणी दंगल चलते रहते। सत्य हरिश्चन्द, राजा भरथरी जैसे सत्य वैराग्यमूलक कथानक ख्यालों में खूब चलते और सराहे जाते थे। रात-रातभर ये ख्याल चलते जिन्हें देखने के लिए आसपास के गांव के गांव उमड़ पड़ते थे।
सम्भव है लोकजीवन में प्रचलित इन्हीं वैराग्य-भावना प्रधान ख्यालों, घटना किस्सों ने अपरोक्ष रूप से मुनिश्री को गृहस्थ-जीवन से उठाकर संन्यास-जीवन, संत-साधु जीवन की ओर प्रेरित किया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। फलतः १८ वर्ष की उम्र मे ही वे साधु बन गये।
साधुजीवन अंगीकार करने के पश्चात् भी इनका मन जन-जन की कल्याणकामना की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर जनता की भाषा और जनता में गाई जाने वाली लयों को, तों को अपनाया। फलतः इन्होंने लोकजीवन प्रचलित जैसे-"●सो, जला, मीरां थारे कांई लागे गोपाल, रावण को समझावे राणी, तरकारी लेलो मालन आई बीकानेर की, बेटी साहूकार की थांप चंवर दुरै छै जी राज, मनवा समझ म्हारा वीर;" जैसी तों में विविध जैनचरित नायकों की ख्याल जीवनियाँ लिखीं, जो धर्मप्रेमी जनता में अधिक लोकप्रिय हुई। वे अब तक लोककण्ठों में प्रचलित धुनों, गीतों तथा कथा आख्यानों से परिचित हो चुके थे।
वे इसको भलि-भांति जानते थे कि जनता की भाषा में दिया हआ उपदेश जनता के हृदय तक पहुँचेगा।
___ मुनिश्री अपने व्याख्यानों में इन चरित्रों का सस्वर वाचन-गायन करते तब श्रोता-समुदाय पूरा का पूरा मुनिश्री के साथ अपने गायक स्वर मिलाता झूम उठता और चरित्र के साथ आत्मसात
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