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: ३१५ : लोकचेतना के चिन्मय खिलाड़ी
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-वान्थ
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लोकचेतना के चिन्मय खिलाड़ी
मुनिश्री चौथमलजी महाराज
* डॉ. महेन्द्र भानावत, एम० ए०, पी-एच० डी० मुनिश्री चौथमलजी महाराज लोकचेतना के जबर्दस्त सचेतक थे। उनकी वाणी जनकल्याणी थी इसलिए महल-मालिया से लेकर सड़क पर सोने वाले सभी उनके मानलेवा थे। वे अमीरों की राह और गरीबों की आह; दोनों को अपनी दोनों आँखों की ओलखाण देते थे। अपने उपदेशों में वे प्रत्येक वर्ग, धर्म, जाति-पाँति से ऊपर उठकर समुन्नत मानवता की बात कहते थे। मनुष्य के मर जाने से भी अधिक खतरनाक वे मनुष्यता की मौत मानते थे अत: उनके सारे उपदेश मानवता के चरम विकास को प्रकाशित करने वाले होते थे।
उन्हें गरीबों, पीड़ितों, असहायों और दलित-पतितों से अधिक लगाव, अधिक सहानुभूति और अधिक स्नेह-संबल था, परन्तु उच्च सम्पन्न समृद्धवर्ग से उन्हें कतई घृणा नहीं थी। घृणा यदि थी तो कुवृत्ति और कुकर्म से, चाहे वह ऊँचे तपके में व्याप्त हो, चाहे नीचे तपके में । वे चाहते थे ऊँचे लोग अपने हिये की आँख खोलकर निम्न वर्ग को अपनापा दें। इनकी हीनता को अपनी शालीनता दें। इनकी दीनता को अपना डाव और दान दें। इनकी जिह्वा को अपना पान दें। इनकी झकी हई झोंपड़ियों को अपने नेबों का पानी दें। अपने दरीखाने की बैठक दें। चौराहे का चिराग दें और वह सब कुछ दें जिसकी इन्हें जरूरत है और जिसकी वे अधिकता लिए हैं। वे अपने विसर्जन को इनका सर्जन माने। मुनिश्री ने यही सब कुछ किया अपने उपदेशों के माध्यम से ; अपनी पदयात्राओं के माध्यम से और अपने मेल-मिलाप के माध्यम से ।
वे जानते थे कि यदि यह नहीं किया गया तो मनुष्य-मनुष्य का अन्तराल इतना अधिक बढ़ जायगा कि छोटे वर्ग का अस्तित्व पशुता के समकक्ष पहुँच जायगा और मनुष्यता एक मजाक बनकर रह जायगी। इसलिए उन्होंने लोकचेतना का सहारा लिया। लोक के मूल्य और उसके अस्तित्व को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने पाया कि लोक की श्री और शक्ति में, उसके संस्कार और सौंदर्य में वे सब भाव विभूतियाँ विद्यमान हैं, मगर उनका अहसास कराने वाला कोई नहीं है। यदि इनमें निहित सुप्त भाव जग गये तो इनका अभाव काफी हद तक दूर किया जा सकता है।
अत: उन्होंने अपने उपदेशों में लोक के उन चरित्रों को अस्तित्व दिया जो ज्ञात होते हुए भी अज्ञात बने हुए थे । जो बार-बार बोले जाते हुए भी अबोले थे। कई चरित्र, कई आख्यान, कई कथाएँ, गाथाएं पुण्य के प्रताप की, सत्य और सदाचार की, शास्त्रों की, लोकजिह्वा की, समाज संस्कारों की, व्रतकथाओं की; इन सबको उन्होंने पुनर्जीवन दिया, प्रतिष्ठा दी, गीत दिया, संगीत दिया, नया बोल और कड़ावा दिया, लोक का जीवन-रस दिया और इन सबके माध्यम से समग्र मानवता की, मनुजता की एक ऊर्ध्वगामी चेतना-गंगा की लहर नीचे से ऊपर तक और ऊपर से नीचे तक सबमें समान भावभमि पर पुलिया दी।
लोक की यह भावभूमि दीक्षा ग्रहण करने के पहले से ही, कहिये तो बचपन से ही, उनमें पैठी हुई थी। क्योंकि नीमच में अच्छे खिलाड़ी थे ख्यालों के ख्यालों में भी तुर्राकलंगी ख्यालों के । एक अजीब किस्सा है इन ख्यालों के प्रचलन का, प्रारम्भ होने का। इनके मूल में भी संत ही रहे।
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