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: ३११ : बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी....
। श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
पड़ जाता है तो, उसकी साधना भी व्यर्थ हो जाती है। अतएव भगवान का फरमान है कि साधक को क्षणभर के लिए भी प्रमाद नहीं करना चाहिये ।"
-दिवाकर दिव्य ज्योति भाग ४
वे बहुश्रुत ! बहुत से शास्त्रों को जानने वाला, बहुश्र त का शब्दार्थ है। लेकिन यथार्थतः वही महापुरुष बहुश्रु त जैसे पावन पद पर विराजमान होने का अधिकारी है, जो स्वदर्शन और परदर्शन का मर्मज्ञ हो, आत्मा-परमात्मा, जीव-अजीव, स्वर्ग नरक, लोक-परलोक, द्रव्य-तत्व आदि के सम्बन्ध में अपनी क्या श्रद्धा, विश्वास, ज्ञान दृष्टि है ? अन्य दार्शनिक परम्परायें क्या मान्यताएँ रखती हैं ? इन मान्यताओं के पीछे कौन-सी दृष्टि है ? इन सब का ज्ञाता ही वास्तव में बहुश्रुत है।
हमारे पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज ऐसे ही बहुश्रत महर्षि हैं। उन्होंने साधना के प्रारम्भ काल से ही शास्त्रों के अध्ययन की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया था। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, उर्दू, फारसी आदि समकालीन भाषाओं का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर जैन आगमों के अतिरिक्त वेद, उपनिषद्, गीता, कुरान आदि का अनुशीलन भी किया। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा लिखित बहुत से ग्रन्थों के विशेष अंशों की जानकारी प्राप्त की। इस व्यापक अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि स्वदर्शन और परदर्शनों का तुलनात्मक विश्लेषण करने की वे अपूर्व योग्यता प्राप्त कर सके। जैन और जनेतर दर्शनों के गूढ़ रहस्य उनसे अनजाने नहीं रहे । जिन व्यक्तियों ने उनके प्रवचन सुने हैं वे भली-भांति जानते हैं कि अपने विवेचनीय विषय को सर्वजन सुलभ बनाने के लिए दूसरे धर्मों-दर्शनों की अनेक युक्तियों, उदाहरणों को प्रस्तुत करते थे। जिससे जैन बन्धु तो लाभान्वित होते ही थे, लेकिन उनकी अपेक्षा जैनेतर जनता पूर्ण उत्साह, उल्लास, श्रद्धा के साथ प्रतिलाभित होती थी। यही कारण है कि जन्मजात मांस, मच्छी, मद्य पायी, चोर जैसे व्यक्तियों ने प्रगट में अपने दोषों का वर्णन करके संस्कार-नीति सम्पन्न जीवन बिताना प्रारम्भ किया था ।
संगम तीर्थ
दो पवित्र जीवनदायिनी नदियों के एक-दूसरे में मिलकर एक रूप होने के स्थान को लोक में संगम तीर्थ कहते हैं। जैसे वर्तमान में गंगा और यमुना के मिलन स्थान से प्रयाग का दूसरा नाम संगम तीर्थ भी है । इसी तरह हमारे पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज भी एक संगम तीर्थ हैं। उनमें अहिंसा और करुणा की ऐसी अक्षयधारा मिली हुई थी कि जिनकी शीतलता में प्राणिमात्र का तन-मन पुलक उठता था। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की अहिंसा और करुणा परिधि थी। वे अपने प्रत्येक कार्य का मूल्यांकन अहिंसा और करुणा की दृष्टि से करते थे। वे अपने प्रत्येक कार्य में यह देखते थे कि किसी के मन को आघात न पहुँचे, दूसरे का अहित न हो और सदैव इस प्रयत्न में लगे रहते थे कि सबका भला हो !
संघ समर्पित
पूज्य श्री जैन दिवाकरजी महाराज यह भली-भांति जानते थे कि व्यक्तित्व चाहे कितना भी महान् हो, लोगों के समूह आगे-पीछे घूमें और स्वागत सम्मान में पलक पाँवड़े भी बिछा दें । फिर भी समष्टि के सम्मुख उसका महत्व कम ही है। कोई भी व्यक्ति संगठन, समूह, संघ से ऊपर नहीं हो सकता। इसलिए उन्होंने संघ-संगठन के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने का
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