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: ३०६ : बह आयामी व्यक्तित्व के धनी"..
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
भोगना पड़ेगा ? इस जन्म के वैर का बदला न मालूम किस जन्म में चुकाना पड़े। अतएव शक्ति और सत्ता आदि के अभिमान में मत भूलो। सदा सोच-समझकर प्राणीमात्र के प्रति स्नेह और दया की ही भावना रखो।"
X "जिन भले आदमियों को इहलोक और परलोक न बिगाड़ना हो, समाज में घृणा और नफरत का पात्र न बनना हो, धर्म से पतित न होना हो, अपने कूट्रम्ब, परिवार वालों के लिए भारभूत और कालरूप न बनना हो, अपने बाप-दादों की इज्जत को धूल में न मिलाना चाहते हो, अपनी सम्पत्ति का स्वाहा न करना चाहते हो और अपनी प्यारी सन्तान को संकट के गहरे गड्ढे में नहीं डालना चाहते हो, तो मदिरापान से सदैव दूर-बहुत दूर ही रहना चाहिए। जो मनुष्य मोरियों में पड़ा-पड़ा दुनिया का तिरस्कार ओढ़ने से बचना चाहता है और अपने जीवन को सर्वनाश से बचाना चाहता है उसे मदिरापान की बुरी आदत को शुरू ही नहीं करना चाहिए।"
-दिवाकर दिव्य ज्योति समय-समय पर निकले इसी प्रकार के हृदयोद्गारों ने सभी को प्रभावित किया। जिसका परिणाम यह हुआ, कि समकालीन राजा-महाराजाओं ने, अमीर-उमरावों ने, सेठ-साहकारों ने वह सब किया। जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उन्होंने विलासी जीवन छोड़कर सदाचार पूर्ण जीवन की ओर अग्रसर होने का स्वेच्छा से निश्चय किया और इस प्रकार के जीवन निर्माण के लिए शराब छोड़ी, मांस भक्षण का त्याग किया, शिकार खेलना बन्द किया। क्षत्रियों ने अपने क्षत्रियत्व की सही मायने में स्थापना की। साथ ही अनुगामी प्रजा ने भी वैसा ही जीवन बिताने की प्रतिज्ञा की। चमार, खटीक आदि अछत समझे जाने वाले प्रभावित हुए और अनेक सुखद जीवन की ओर बढ़ गये। वे तो सम्भवतः हों या न हों, लेकिन उनकी सन्तानें नैतिक जीवन को व्यतीत करते हुए इस पुण्य पुरुष का सश्रद्धा अवश्य स्मरण करती हैं। श्री जैन दिवाकरजी महाराज के इस विचार कण ने आज इतना व्यापक रूप ले लिया है कि भाल नल कांठा प्रयोग, वीरवाल प्रवृत्ति, धर्मपाल प्रवृत्ति जैसी व्यसन मुक्ति की अनेक प्रवृत्तियाँ अपने-अपने क्षेत्रों में जीवननिर्माण के लिए कार्य कर रही हैं।
कंस भायणं व मुक्कतोए गुरुदेव श्री जैन दिवाकरजी महाराज महामानव थे। महामानव वही कहलाते है जिनकी करुणा परिधि स्व तक सीमित न होकर 'आत्मवत सर्वभूतेष' को स्पर्श करती है। जिनका जी लक्ष्य आत्म-कल्याण ही नहीं, साथ में जनकल्याण भी होता है। वह मानवता के प्रति न्यौछावर हो जाता है। श्री जैन दिवाकरजी महाराज की जीवन-पोथी में यही सब तो अकित है। वे जहाँ भी गये, ग्राम और नगर, महल और झोंपड़ी, धनी और निर्धन, पढ़े-लिखे और अनपढ़े को समान रूप से मानवता का बोध कराते थे। सभी यही कहते हैं कि 'गुरुदेव की हम पर बड़ी कृपा है।' पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों के व्यक्ति कहते हैं कि 'आज जो कुछ भी हम हैं, दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदली है तो इसके निमित्त यही महाराज हैं। राजाजी के गुरु एवं बड़े-बड़े धनपतियों को नतमस्तक होने पर भी इनमें अभिमान नहीं है, और अपनी हृदयांजलि अर्पित करते हुए 'जगद्वल्लभ' का उच्चारण करने लगते हैं। जो उनकी वाणी से प्रभावित थे और सैद्धान्तिक विचारों को जानने के इच्छुक रहते थे, उन्हें 'प्रसिद्ध वक्ता' कहकर अपनी मनोभावना व्यक्त करते हैं। जैन बन्धुओं के मानस में तो 'जन दिवाकर' के रूप में अंकित हैं। सभी अपनी-अपनी भावना से
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