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: ३०३ : संतों की पतितोद्धारक परम्परा."
श्री जैन दिवाकर - स्मृति-ग्रन्थ
के कारण वे पुनः-पुनः उन बुरी आदतों को करते रहते हैं, उनसे लिप्त बने रहते हैं, उन्हें छोड़ नहीं पाते; जब सद्गुरु या सन्त-जन के सम्पर्क व समागम का सुअवसर उन्हें पुण्ययोग से प्राप्त होता है, तब वे सचेत व जागरूक हो जाते हैं और बुरी बातों को छोड़ने का तत्काल निर्णय कर बैठते हैं । वे उन सन्तों का जितना भी उपकार माने थोड़ा है जिनकी कृपा से उनका हृदय परिवर्तन होता है वे बुरी बातों को छोड़ने में समर्थ बन जाते हैं । जिनसे उनका जीवन पतनोन्मुखी हो रहा था, शराब आदि से उनका बेहाल हो रहा था और उनके पारिवारिक-जनों, स्त्री-बच्चे आदि को भी उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ रहे थे । क्योंकि शराब का एक ऐसा नशा मनुष्य के मस्तक पर छा जाता है कि अपनी सुध-बुध खो बैठता है। अकरणीय कार्य करते हुए उसे तनिक भी भान नहीं होता। आर्थिक दृष्टि से बड़े परिश्रम से कमाए हुए द्रव्य की रोज बर्बादी होती है, घर वालों के लिए वह दो समय का पूरा अन्न भी नहीं जुटा पाता । स्त्री बेचारी तंग आ जाती है बहुत बार उसे मार खानी पड़ती है। गालीगलौज तो रोज की जीवनचर्या-सा बन जाता है। बच्चों को दूध नहीं मिल पाता । वे पाठ्यक्रम की पुस्तकें खरीद करने के लिए भी पैसा नहीं जुटा पाते । अर्थात् शराबी का असर एक व्यक्ति पर नहीं सारे परिवार पर पड़ता है अत: शराबी का शराब पीना छुड़ा देना उसके परिवार भर में शान्ति की वृद्धि करना है । मुनिश्री चौथमलजी महाराज के उपदेश से अनेक शराबियों ने शराब पीना छोड़ दिया यह उनके जीवन का बहुत ही उज्ज्वल पक्ष है।
प्राचीन काल से यह मान्यता चली आ रही है कि 'यथा राजा तथा प्राजा' । इसलिए हमारे अनेक आचार्यों और मुनियों ने राजाओं को सुधारने का भी पूरा ध्यान रखा और उनको उपदेश देकर मांस-मदिरा, शिकार, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, जुआ आदि दुर्व्यसनों को दूर करने का भरसक प्रयत्न किया। क्योंकि शासक का प्रजा पर बहुत ही व्यापक प्रभाव पड़ता है । एक शासक के सुधरने पर उसके जी-हजुरिये व अधिकारीगण भी सुधरने लगते हैं। बहुत बार शासकगण राज्य भर में कसाईखाने बन्द रखने, मद्य-निषेध आदि के आज्ञापत्र घोषणा जारी कर देते हैं जिससे हजारों पशु-पक्षियों की हिंसा बन्द हो जाती है उन्हें अभयदान मिलता है । ऐसी हमारी उद्घोषणाएं समय-समय पर अनेक राजाओं, ठाकूरों आदि ने जैनाचार्यों व मुनियों के उपदेश से करवायी थीं उनके सम्बन्ध में मेरा एक शोधपूर्ण निबन्ध प्रकाशित हो चुका है।
मुसलमानी साम्राज्य के समय भी विशेषत: सम्राट अकबर को अहिंसा व जैनधर्म का उपदेश देकर ६-६ महिने तक उसके इतने विशाल शासन में गोवध, पशुहत्या आदि का निवारण किया जाना बहुत ही उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण है। तपागच्छीय श्री हीरविजय सूरि खरतरगच्छीय श्रीजिनचन्द्रसूरि तथा श्रीशान्तिचन्द्र, भानुचन्द्र, जिनसिंह सूरि विजयसेन सूरि, आदि जैनाचार्यों तथा मुनियों के उपदेशों का सम्राट अकबर व जहाँगीर आदि पर इतना अच्छा प्रभाव पड़ा था कि उन्होंने स्वयं अपने मांसाहार की प्रवृत्ति को बहुत कम कर दिया था और कई दिन तो ऐसे भी निश्चित किये गये थे जिस दिन वे मांसाहार करते ही नहीं थे। आशाली अष्टानिका और पर्युषणों के १० दिन सर्वथा जीवहिंसा बन्द करने के फरमान अकबर ने अपने सभी सूबों में भिजवा दिये थे, इतना ही नहीं खंभात के कई समुद्र व कई तालाबों में मच्छियों को भी न मारने के फरमान जारी कर दिये गये थे। शासन प्रभावक जिनप्रभसूरि आदि के प्रभाव से मौहम्मद तुगलक ने जैन तीर्थों की रक्षा आदि के फरमान जारी किये और स्वयं शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा की। अर्थात् एक शासक को धर्मोपदेश देकर सुधार दिया जाय तो इससे जीवदया आदि का बहुत बड़ा काम सहज ही
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