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|| श्री जैन दिवाकर म्मृति-ग्रन्थ ।
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २२४ :
उनका अविनाशी यश
क गेंदमल देशलहरा, गुण्डरदेही (म० प्र०) स्वर्गीय जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज साहब ने अपने कठिन से कठिन तपस्याउत्कृष्ट त्याग, संयममय जीवन द्वारा-जो देश के अनेक प्रान्तों में विहार कर अपने अमूल्य प्रवचनों एवं स्वरचित अनेक नैतिक भावपूर्ण स्तवनों द्वारा जो सेवा बजाई-उनकी तारीफ में मेरे पास शब्द नहीं जो कि वर्णन कर सकू।
श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने साधु जीवन में अनेक भारी कष्टों-परिषहों-बाधाओं को सहन करते हुए-जो समाज की भारी सेवाएं की उनका हम कैसे मूल्याङ्कन करें ?
ऐसे आत्म समर्पित सन्तों का जीवन क्या एक ही जैन समाज के लिये ही होता है ? उनके द्वारा निर्ग्रन्थ-जिनवाणी देश को विभिन्न मतावलम्बी समाजों के लिये तो क्या ? जैसा कि मेरा विश्वास एवं अनुभव है-लोक-कल्याण व विश्व-कल्याण के लिये ही होता है। चाहे ऐसे सन्त कार्य करके चले जाये-लेकिन उनके पश्चात् भी-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने लायक अजर, अमर एवं स्मृति रूप में अविनाशी होता है।
वन्दनातुमको...
श्रीमती सुधा अग्रवाल
एम० ए०, बी०एड०, वाराणसी हे मुनिवर तुमको शत प्रणाम । हे गुरुवर तुमको शत प्रणाम । शत-शत प्रणाम, शत-शत प्रणाम । शत-शत प्रणाम, शत-शत प्रणाम ।१। ज्ञानाधिदेव तुमको मानू । मैं अमृत-सिंधु तुमको जानें। तुमने दरसाया मोक्ष याम । हे गुरुवर तुमको शत प्रणाम ।२। अध्यात्म-ज्ञान के प्रखर दीप। तुमसे आलोकित सभी द्वीप । अज्ञान-तिमिर के तडिद्धाम । हे मुनिवर तुमको शत प्रणाम ।। हे शान्त-क्षमाधारी विधुवर । तुम भक्त चकोरों के प्रियतर । श्रद्धा नत होवें नाथ माथ । हे मुनिवर तुमको शत प्रणाम ।४।
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