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श्री जैन दिवाकर स्मृति-न्य
: २२३ : श्रद्धा का अध्यं : भक्ति-भरा प्रणाम
श्री जैन दिवाकर जी एक देवदूत की भूमिका में.
-हस्तीमल झेलावत (इन्दौर) मुनिश्री चौथमलजी महाराज का एक धर्मप्रचारक के रूप में बहुत ऊँचा स्थान है । आपकी वाणी में अनुपम बल था। हजार-हजार श्रोता मन्त्रमुग्ध, मौन-शान्त बैठे रहते थे । चारों ओर सन्नाटा छा जाता था और अन्त में प्रवचन-सभार गगनभेदी जयघोषों से गंज उठती थीं। मुनिश्री के इस प्रभाव का कारण बहत स्पष्ट था। वे जैन तत्त्व-दर्शन के असाधारण वेत्ता थे और उन्होंने जैनेतर धर्म और दर्शनों का भी गहन अध्ययन किया था। उनकी भाषा सरल-सुगम थी, और वे अमीरगरीब, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, जैन-अजैन का कोई भेद नहीं करते थे। उनके प्रभाव का क्षेत्र विस्तृत था। जैन मुनियों की शास्त्रोक्त मर्यादा के अनुरूप पैदल घूमते हुए उन्होंने भारत की सुदूर यात्राएँ की। मेवाड़, मारवाड़, मालवा तो उनकी विहार-भूमि बने ही; इनके अलावा वे दिल्ली, आगरा, कानपुर, पूना, अहमदाबाद, लखनऊ आदि सघन आबादी वाले बड़े शहरों में भी गये और वहाँ की जनता को अपनी अमतोपम वाणी से उपकृत किया। आपके मधुर, स्नेहिल और प्रसन्न व्यक्तित्व ने अहिंसा और जीवदया के प्रसार में बहत सहायता की।
जैन दिवाकरजी ने मानव-जाति के नैतिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए एक देवदूत की भूमिका निभायी। समकालीन राणे-महाराणे, राजे-महाराजे, सेठ-साहूकार सबने स्वयं को उनका कृतज्ञ माना और उनकी वाणी से प्रभावित होकर वह किया जिसकी ये कल्पना भी नहीं कर सकते थे। शराब छोड़ी, मांस-भक्षण का त्याग किया, शिकार खेलना बन्द किया और एक विलासी जीवन से हटकर सदाचारपूर्ण जीवन की ओर अग्रसर हुए। यह काम किसी एक वर्ग ने नहीं किया। चमार, खटीक, वेश्यावर्ग भी उनसे प्रभावित. हुए और अनेक सुखद-जीवन की ओर मुड़ गये। अनेक उपेक्षित जातियों ने भांग-चरस, गांजा-तम्बाख, मांस-मदिरा जिन्दगी-भर के लिए छोड़ दिये। उनकी करुणा और वत्सलता की परिधि इतनी ही नहीं थी, वह व्यापक थी; उसने न केवल मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर मोड़ा वरन् उन लाख-लाख मूकपशुओं की जाने भी बचायीं जो शिकार, बलि और मांस-भक्षण के दुर्व्यसन के कारण मारे जाते थे। कई रियासतों और जागीरों के निषेधादेश इसके प्रमाण हैं।
मुनिश्री आरम्भ से ही मौलिक वक्तृत्व के धनी थे। आपने बालविवाह, वृद्धविवाह, कन्याविक्रय, हिंसा, मांसाहार, मदिरापान, शिकार, अनैतिकता-जैसी कुप्रथाओं और दुर्व्यसनों पर. तो प्रभावशाली प्रवचन दिये ही; अहिंसा, कर्त्तव्य-पालन, गृहस्थ-जीवन, दर्शन, संस्कृति इत्यादि पर भी गवेषणापूर्ण विवेचनाएँ प्रस्तुत की। आपके सार्वजनिक प्रवचन इतने धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी होते थे कि उनमें बिना किसी भेदभाव के हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी सम्मिलित होते थे। जैन साहित्य के साथ आपको कुरान-शरीफ, बाइबिल, गीता इत्यादि का भी गहन अध्ययन था अतः सभी विचारधाराओं के और सभी धर्मों के व्यक्ति आपके व्यक्तित्व और ज्ञान से प्रभावित होते थे। संक्षेप में, वे वाणी और आचरण के अभूतपूर्व संगम थे, कथनी-करनी के मूर्तिमन्त तीर्थ ।
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