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:१८७: श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
सच्चे सन्त और अच्छे वक्ता
* उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी महामनीषी मुनिपुंगव जैन दिवाकर श्री चौथमल जी महाराज स्थानकवासी जैन समाज के एक मूर्धन्य सन्तरत्न थे। वे ऐसे सन्त थे जिन्होंने अपना पथ अपने आप बनाया था। उन्होंने दूसरों के सहारे पनपना, बढ़ना उचित न समझकर अपने ही प्रबल पुरुषार्थ से प्रगति की थी । एक व्यक्ति पुरुषार्थ से कितना आगे बढ़ सकता है और अपने अनुयायियों की फौज तैयार कर सकता है, यह उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से बता दिया। वे जहाँ भी पहुँचते वहाँ विरोधी तत्त्व उनकी प्रगति के लिए बाधक बनता, पर विरोध को विनोद मानकर उसकी उपेक्षा करके बरसाती नदी की तरह निरन्तर आगे बढ़े, पर कभी भी कायर पुरुष की भाँति पीछे न हटे।
जैन दिवाकरजी महाराज सच्चे वाग्मी थे। वे जहाँ कहीं भी प्रवचन देने के लिए बैठ जाते, वहाँ धीरे-धीरे प्रवचनस्थल श्रोताओं से भर जाता। उनकी आवाज बुलन्द थी। उसमें ओज था, तेज था । शैली अत्यन्त मधुर थी और विषय का प्रतिपादन बहुत ही स्पष्ट रूप से करते थे। प्रवचनों में आगमिक रहस्यों के उद्घाटन के साथ ही समाज-सुधार, राष्ट्र-उत्थान व जीवन की पवित्रता किन सद्गुणों के कारण से हो सकती है, इन पर वे अधिक बल देते थे। अपने विषय के प्रतिपादन हेतु रूपकों का तथा संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू के सुभाषित, सूक्तियों, दोहे, श्लोक, शेर, गजलें और भजन का प्रयोग भी करते थे। उनके साथ उनके शिष्य ऐसे भजन-गायक थे, जो उनके साथ जब गाने लगते तो एक समाँ बँध जाता और श्रोता मस्ती से झमने लगता । उनके प्रवचनों की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे किसी का खण्डन करना कम पसन्द करते थे। समन्वयात्मक शैली से वे अपने विषय का प्रतिपादन करते थे । यही कारण है कि जैन मुनि होने पर भी उनके प्रवचनों में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी सभी धर्मावलम्बी बिना संकोच के उपस्थित होते और उनके उपदेशों को सुनकर अपने आपको धन्य अनुभव करते । मैंने स्वयं ने उनके प्रवचनों को सुना; मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि साक्षात् सरस्वती पुत्र ही बोल रहा है। वाणी में इतना अधिक माधर्य था कि सुनते-सुनते श्रोता अघाता नहीं। प्रवचनों में ऐसी चुटकियां लेते कि श्रोता हँस-हँसकर लोट-पोट हो जाता । वे सदा प्रसन्न रहते थे और अपने श्रोताओं को भी मुहर्रमी सूरत में देखना नहीं चाहते थे। उनका मन्तव्य था-"तुम खिलो, तुम्हारी मधर मुस्कान के साथ संसार का साथ है, यदि तम रोओगे तो तुम्हारे साथ कोई भी रोना पसन्द नहीं करेगा । हंसते हुए जीओ और हंसते हुए मरो। और उसका राज है विकारों को कम करना, वासनाओं को नष्ट करना और साधनामय जीवन व्यतीत करना । आप किसी जीव को न सताओगे तो आपको भी कोई न सताएगा। प्रसन्नता बाँटो।"
वे अपने प्रवचनों में सदा सरल और सरस विषय को लेना पसन्द करते थे। गम्भीर और दार्शनिक प्रश्नों को वे इस तरह से प्रस्तुत करते थे कि श्रोताओं के मस्तिष्क में भारस्वरूप न प्रतीत हों। वे मानते थे कि प्रवचन केवल वाग्विलास नहीं है, वह तो जीवन निर्माण की कला है । यदि प्रवचन सुनकर श्रोताओं के जीवन में परिवर्तन न आया, उनका सामाजिक और गार्हस्थिक जीवन न सुधरा, तो वह धार्मिक व आध्यात्मिक-साधना किस प्रकार कर सकेगा? अत: जीवन को सुधारना आवश्यक है । आज जन-जीवन विविध प्रकार की कुरूढ़ियों से जकड़ा हुआ है। वह प्रान्तवाद, पंथवाद के सिकंजों में बन्द है, अतः उसका जीवन एक विडम्बना है। हमें सर्वप्रथम मानव को उससे
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