________________
॥ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।।
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : १७८ :
महुक्तता सदान पुष्प
* मालवरत्न उपाध्याय पं० श्री कस्तूरचन्दजी महाराज (रतलाम म० प्र०) यह संसार एक विराट् उद्यान की भाँति है जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के मानव रूपी पुष्प विकसित, पल्लवित होते रहते है । फूलों ही की भाँति कोई आकार में तो सुन्दर सुगठित होता है तो सगुणों की सुगन्ध उनमें नहीं होती। कोई देखने में तो अप्रिय लगते हैं, पर उनमें चारित्रिक सुवास होती है । कोई गुलाब के फूल की भाँति देखने में सुन्दर व गन्ध में भी प्रियकारी होते हैं। गुलाब की तरह सुरभित जीवन संसार में कितने लोगों का होता है ? इने-गिने लोगों का । ऐसा जीवन जीने वाले मानव अपने जीवन में तो दूसरों को प्रफुल्लित-आनन्दित करते ही हैं, मरने के बाद भी उनकी उत्कृष्ट-चारित्र की महक लोगों के मन में सदा-सदा के लिए बस जाती है। जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता श्री चौथमलजी महाराज का सम्पूर्ण जीवन ही एक पूर्ण विकसित महकते गुलाब की भाँति था। अपने जीवनकाल में तो वे शीतल, सुरमित मलय की भाँति सारे देश में विचरते हुए अहिंसा, सत्य, प्रेम की धारा प्रवाहित करते ही रहे, पर स्वर्गवासी बनने के बाद भी आज उनके उच्चादर्श, सदुपदेश जन-जन के जीवन को मंगलमय बनाने में लगे हुए हैं।
श्री जैन दिवाकर जी महाराज के जीवन का उद्देश्य था-श्रमण संस्कृति की श्रेष्ठता को स्थापित करते हुए मात्र धर्म-प्रचार, यही नहीं वरन ऊँच, नीच, छोटे-बड़े के भेदभाव को मिटाकर, जातिगत बन्धनों की जंजीरों में जकड़े समाज को व्यापक परिवेश देकर उन्हें यह समझाना कि कोई भी व्यक्ति मानव पहले है, बाद में जैन, हिन्दू, मुसलमान या हरिजन । सबसे बड़ा धर्म है-मानवमात्र की सेवा करना, दीन-दुःखियों की सहायता करना, गिरते को ऊँचा उठाना । अपने इस पावन उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे जीवनभर सतत कार्य करते रहे। वे सफल रहे। यही कारण है कि उनके इन मानवता हितैषी कार्यों की वजह से, वे आज मात्र जैन समुदाय में ही नहीं वरन् समस्त वर्गों में पूजनीय-वन्दनीय व श्रद्धा के पात्र हैं।
आज हम उस मनस्वी महासन्त का जन्म शताब्दी वर्ष मना रहे हैं । इस परिप्रेक्ष्य में अपनी एक नजर समाज-संसार पर भी डालें । क्या हम यह अनुभव करते हैं कि श्री जैन दिवाकर जी महाराज ने जिस समाज रचना की कल्पना की थी, उसे हम यथार्थता प्रदान कर सके हैं ? साम्प्रदायिक भावना से ऊपर उठकर सामाजिक उत्थान के साथ-साथ हमने दीन-दुःखी साधर्मी, भाईबहनों के लिए क्या अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया है ? इस मनीषी को अपने हृदयगत श्रद्धा सुमन अर्पित करने की दिशा में पहला कदम होना चाहिए-अपने दिलों में साधर्मी-वात्सल्य भाव को जागृत करना, एक भेदभाव मुक्त सुन्दर, आनन्दमय समाज का निर्माण करने के लिए प्रयास करना । यदि हम इस दिशा में पैर बढ़ायेंगे, तभी श्री जैन दिवाकरजी महाराज को अपनी वास्तविक श्रद्धांजलि समर्पित करेंगे।
औरों को बदलने के लिए, खुद को बदलना सीखो शंकर बनना हो अगर, विष घूट निगलना सीखो। उजाले की परिभाषा न, मिलेगी किताबों में तुम्हें, उसको पाने के लिए खुद, दीपक बन जलना सीखो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org