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: १२७ : प्रेरणा पुञ्ज
| श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
प्रेरणा पुञ्ज
महासती श्री प्रभावतीजी
सारे नगर में एक विचित्र चहल-पहल थी। सभी के चेहरे खिले हुए थे। उनके मन में अपूर्व प्रसन्नता थी। मैंने अपनी सहेली से पूछा-"बहिन, आज इतना उल्लास क्यों है ? सभी लोग कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हैं ?"
सहेली ने बताया-"क्या तुझे पता नहीं ? आज जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज हमारे नगर में आ रहे हैं। यह उसकी तैयारी है। महापुरुषों का दर्शन और उनका सत्संग महान् भाग्य से मिलता है। एकक्षण का भी महापुरुषों का सत्संग जीवन का आमूल-चूल परिवर्तन कर दे एकक्षण काला-कलूटा लोहा पारस का स्पर्श करता है, तो वह चमकने लगता है। उसके मूल्य में परिवर्तन हो जाता है । वही जीवन की स्थिति है। महापुरुषों के संग से जीवन का रंग भी बदल जाता है। उसमें निखार आता है।" इसी पवित्र भावना से उत्प्रेरित होकर मैं भी अपनी सहेली के साथ जैन दिवाकरजी महाराज के स्वागत हेतु पहुँची । मैंने देखा एक विशालकाय, तेजस्वी चेहरा और उस पर आध्यात्मिक तेज लिए सन्त पुरुष सामने हैं। प्रथम दर्शन में ही मेरा हृदय श्रद्धा से नत हो गया।
उस समय मैं उदयपुर में स्थिरवास विराजी हुई परम विदुषी साध्वी रत्न सद्गुरुणी जी श्री सोहन कुंवरजी महाराज के पास धार्मिक अध्ययन करती थी। मेरा पुत्र धन्नालाल जो उस समय गृहस्थाश्रम में था, बाद में पं० रत्न देवेन्द्र मुनिजी बने और मेरी पुत्री महासती पुष्पावतीजी; वे दोनों भी सद्गुरुणीजी के पास धार्मिक अध्ययन करते थे। मैं सद्गुरुणी के साथ जैन दिवाकरजी महाराज के प्रवचन सुनने पहुँची । उनके प्रवचन में एक अनूठी विशेषता थी कि सभी विचारधारा के लोग उपस्थित होते थे। उनकी वाणी में ऐसा गजब का अतिशय था कि सुनी-सुनायी बात भी जब वे कहते थे, तो ऐसा प्रतीत होता था कि बिलकुल नयी बात सुन रहे हैं। अपने विचारों को प्रस्तुत करने का ढंग उनका अपना था जिसमें श्रोता ऊबता नहीं था। वह यही अनुभव करता था । कि प्रवचन जितना अधिक लम्बा हो उतना ही आनन्द की उपलब्धि होगी। आप सफल प्रवक्ता थे।
जैन दिवाकरजी महाराज प्रवक्ता के साथ एक सरस कवि भी थे। उनकी कविता में शब्दों की छटा, अलंकार आदि का अभाव था । पर वे सीधे, सरल और सहज हृदय से निकली हुई थीं। उसमें साधुता का स्वर मुखरित था, भावों का प्रभात था, विचारों का वेग था । यही कारण है आपकी सैकड़ों पद्य रचनाएँ लोगों को कण्ठस्थ हैं। वे झूमते हुए गाते हैं । मेरा अपना अनुभव है जिन कविताओं या पद्य-साहित्य में पांडित्य का प्रदर्शन होता है, सहज हृदय से जो नहीं निकली हुई होती है, उनका जन-मानस पर स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता।
दिवाकरजी महाराज का प्रवचन व कविताएं ही सरल नहीं थीं, उनका जीवन भी सरल था। जो मन में था वही वचन में था और वही आचरण में भी। उनके जीवन में बहुरूपियापन नहीं था। उनका यह स्पष्ट मन्तव्य था कि सीधे बने बिना सिद्ध गति मिल नहीं सकती। उदयपुर के महाराणा फतेहसिंहजी और भोपालसिंहजी आपके उपदेशों से प्रभावित थे।
जैन दिवाकरजी महाराज के साथ मेरी जैनागम, जनदर्शन को लेकर चर्चाएं भी अनेक
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