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श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
स्मृतियों के स्वर : १२६ :
गौतम दोनों विभिन्न परम्पराओं के थे। उन्होंने मिलकर एक ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया। क्या हम ऐसा आदर्श उपस्थित नहीं कर सकते ? एक दिन सम्प्रदायें विकास का मूल रही होंगी, पर आज वे ही सम्प्रदायें विनाश का मूल बन रही हैं। निर्माण के स्थान पर हमारे मुस्तैदी कदम निर्वाण की ओर बढ़ रहे हैं। क्या आपका मानस इससे व्यथित नहीं है।"
दिवाकरजी महाराज ने कहा-"देवेन्द्र, तुमने मेरे मन की बात कही है। तुम जैसे बालकों के मन में भी ये प्रश्न कचोट रहे हैं-यह प्रसन्नता की बात है। जब हम छोटे थे, उस समय का वातावरण और था, तब सम्प्रदायवाद को पनपने की धुन अनेकों में सवार थी; हमारा विरोध होता था, हमारे प्रतिद्वन्द्वी हमारे को कुचलने को तुले हुए थे और हम उस विरोध को विनोद मानकर धर्म प्रभावना एवं उच्च चारित्र-पालन के साथ चलते थे। मैं इस सत्य तथ्य को स्वीकार करता हैं कि हमारी पूज्य हक्मीचन्द-सम्प्रदाय के दो विभागों ने काफी समाज को क्षति भी पहुँचाई है। यदि हम दोनों एक होते तो आज जितनी इस सम्प्रदाय ने धर्म की प्रभावना की है उससे कई गुनी अधिक धर्म की प्रभावना होती, इस सम्प्रदाय को अजमेर सम्मेलन में भी एक बनाने के लिए बहत प्रयास हुआ। पर दुर्भाग्य है, हम एक बनकर भी बने न रह सके । आज मेरे मानस में ये विचार-लहरियां तरंगित हो रही हैं कि सम्प्रदायवाद को खतम कर एक आदर्श उपस्थित करू'। मैं स्वयं किसी पद का इच्छक नहीं है। मैंने अपनी सम्प्रदाय के आचार्य पद को लेने के लिए भी स्पष्ट शब्दों में इनकारी कर दी। मेरी यही इच्छा है कि सम्पूर्ण जैन समाज एक मंच पर आये। सभी अपनी परम्परा के अनुसार साधनाएँ करते हुए भी कुछ बातों में एकता हो । स्थानकवासी समाज एक आचार्य के नेतृत्व में रहकर अपना विकास करें। मैं इस सम्बन्ध में प्रयास कर रहा हूँ। वह प्रयास कब मूर्त रूप ग्रहण करेगा यह तो भविष्य ही बताएगा।"
जैन दिवाकरजी महाराज के साथ दो दिन तक विविध विषयों पर वार्तालाप हआ । मझें यह लिखते हुए गौरव अनुभव हो रहा है कि उन्होंने अपनी सम्प्रदाय को कुछ समय के पश्चात् संगठन की भव्य-भावना से उत्प्रेरित होकर विसर्जित किया और पांच सम्प्रदायों को एक रूप प्रदान किया । उन पांच सम्प्रदायों में सबसे अधिक तेजस्वी और वर्चस्वी व्यक्तित्व दिवाकरजी महाराज का था, और साथ ही सबसे अधिक साधु-समुदाय भी दिवाकरजी महाराज का था, तथापि उन्होंने आचार्य पद को स्वीकार नहीं किया । यह थी उनकी महानता । जिस पद के लिए अनेक लोग लालायित रहते हैं उस पद को प्राप्त होने पर भी ठुकरा देना यह उनके उदात्त मानस का प्रतीक है।
__ जैन दिवाकरजी महाराज से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ। उनके अनेक संस्मरण आज भी मेरे स्मृत्याकाश में चमक रहे हैं। मैं कंजूस की भांति उन संस्मरणों को सहेज कर रखने में ही आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ।
जैन दिवाकरजी महाराज वक्ता थे, लेखक थे, कवि थे, चिन्तक थे, आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे, समाज-सुधारक थे, संगठन के सजग प्रहरी थे। उनके जीवन में एक नहीं, अनेक विशेषताएँ थीं। जब भी उनकी विशेषताओं का स्मरण आता है, त्यों ही श्रद्धा से सिर नत हो जाता है । उनका स्मरण सदा बना रहे। मैं उनके मंगल आशीर्वाद से आध्यात्मिक धार्मिक साहित्यिक सभी क्षेत्रों में निरन्तर प्रगति करता रहै यही मंगल मनीषा है।
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