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________________ होते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने तर्कादि प्रमाणों द्वारा स्वीकृत | प्रतिपादित पदार्थोंको या अतयं पदार्थोंको पुष्ट करने हेतु ही श्रुति-वाक्यको प्रमाणरूपमें उपस्थापित करते हैं। अगर ऐसा न होता तो इन षड् आस्तिक दर्शनोंमें वेद-प्रमाणताकी समानता होते हुए भी, परस्परपार्थक्य कैसे सम्भव होता ? अस्तु, तकशास्त्रको उपादेयताको दृष्टिमें रखकर, इसे 'सर्वविद्याप्रकाशक' दीपकी तरह बताया गया। इसी सन्दर्भ में तर्कको आर्ष-परम्परासे जोड़नेका प्रयास भी उल्लेखनीय है। मनुका निर्देश है कि 'तर्क'का ज्ञान 'विद्यों' (त्रिवेदी) से ग्रहण किया जाय ।' 'तर्कज्ञ'को मनुने त्रिवेदज्ञकी तरह दशावरा परिषद्का सदस्य माना है। राजनीतिके क्षेत्र में भी तर्कशास्त्रकी महत्ता प्रतिष्ठापित हई है, और तर्कशास्त्रीको राजकायोंमें नियुक्ति-हेतु योग्य पात्र माना गया है । जैन तर्कशास्त्रकी परम्परा : उद्भव व विकास प्राचीन जैन आगमों व स्वतन्त्र दर्शन-ग्रन्थोंमें न्याय-विद्याके बीज प्रचुर मात्रामें प्राप्त होते हैं। जैन परम्पराके अनुसार द्वादशांगी आगमके बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' श्रुतसे 'न्याय' का उद्भव (उद्गम) माना १. यद्यपि वेदविरोधी | कुतर्कको सर्वथा निन्दनीय समझा गया। (क) आर्य धर्मोपदेशं च, वेदशास्त्राविरोधिना। यस्तकेंणानुसन्धत्ते स धर्म बेद नेतरः (मनुस्मृति१२।१०६)। (ख) प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते । एते विदन्ति वेदेषु, तस्माद् वेदस्य वेदता (सायणकृत ऋग्वेदभाष्योपक्रमणिकामें उद्धृत) ॥ तस्मादपि चासिद्ध परोक्षमाप्तागमात् सिद्धम्-(सांख्यकारिका (ग) अतिवादांस्त्यजेत् तर्कान् पक्षं कंचन नाश्रयेत् (नारदपरिव्राजकोपनिषद्, ५।२१)। नैषा मतिस्तर्केणापनेया (कठोप० १।२।९)।। २. परस्पर-ध्वंसिषु कण्टकेषु, जयत्यधृष्यं जिनशासनं ते (अन्ययोगव्यवच्छेदिका, २६) । सर्वेषामाप्तता नास्ति परस्पर-विरोधतः (आप्तमीमांसा, ११३)। ३. सेयमान्वीक्षिकी न्यायविद्या प्रमाणादिभिः पदार्थविभज्यमाना प्रदीपवत सर्वविद्यानां भवति प्रकाशकत्वात् । प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे परीक्षिता ।। (वात्स्यायन भाष्य-१।१२१)। ४. मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवान् अब्रुवन्-को न ऋषिर्भविष्यतीति । तेभ्य एतं तर्कमृषि प्रायच्छत् (निरुक्त, परिशिष्ट)। ५. विद्यभ्यस्त्रयीं विद्यां दण्डनीति च शाश्वतीम् । आन्वीक्षिकी चात्मविद्यां वार्तारम्भांश्च लोकतः ।। (मनु० ७।४३)। ६. विद्यो हेतुकस्तर्की नैरुक्तो धर्मपाठकः : त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत् स्याद् दशावरा (मनु० १२।१११)। ७. तर्कशास्त्रकृता बुद्धिधर्मशास्त्रकृता च या । दण्डनीतिकृता चैव त्रैलोक्यमपि साधयेत् (म० भा० शान्ति पर्व-२४।१७ के बाद प्रक्षिप्त, गीता प्रेस संस्करण)। ८. आन्वीक्षिकी-त्रयी-वार्ता-दण्डनीतिषु पारगाः । ते तु सर्वत्र योक्तव्याः ते च बुद्धः परम्पराः ॥ (म० भा० शान्तिपर्व, २४।१७ के बाद प्रक्षिप्त, गीताप्रेस संस्करण) । -९८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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