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प्राचीन आगम-ग्रन्थों का सम्पादन
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का प्रमाण क्रमशः घटता जाता है :- 'जे' में १८३, 'त' में १४ तो 'हे' और 'को' में मात्र ९ प्रतिशत ही रह जाता है । इससे स्पष्ट साबित होता है कि ग्रन्थ के मूल प्राकृत शब्दों में काल की गति के साथ लेहियों के हाथ ध्वन्यात्मक परिवर्तन किस गति से बढ़ता गया है । इस दृष्टि से वि० आ० भा० का यह विश्लेषण बहुत ही उपयोगी है । इसके आधार से हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि यदि वि० आ० भा० की भाषा में कुछ शताब्दियों के बाद इतना परिवर्तन आ सकता है तो फिर मूल आगम ग्रन्थों की भाषा में एक हजार और पन्द्रह सौ वर्षों के बाद कितना परिवर्तन आया होगा इसका अन्दाज सरलता से लगाया जा सकता है ।
भाषा सम्बन्धी इस परिवर्तन के दो कारण रहे हैं - एक तो समकालीन भाषा का परिवर्तित रूप और द्वितीय व्याकरणकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये भाषा सम्बन्धी नियम । प्राकृत भाषा के वैयाकरणों ने यदि ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से हरेक भाषा का स्वरूप निरूपित किया होता तो शायद यह परिस्थिति नहीं होती । व्याकरणों 'आर्ष प्राकृत के कुछ उदाहरण तो अवश्य दिये
ये हैं परन्तु मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप ( कुछ व्यंजनों के घोषीकरण के सिवाय ) सर्वव्यापी सभी प्राकृत भाषाओं पर लागू हो जाता हो ऐसा फलित होता है; जबकि प्राचीन प्राकृत भाषाओं — मागधी, शौरसेनी अर्धमागधी आदि में इस प्रकार का लोप होना ऐतिहासिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है । बड़े पैमाने पर लोप महाराष्ट्री प्राकृत में ही हुआ है और इस भाषा का काल ई० सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों का माना जाता है । अनेक प्राचीन लेखों में उत्कीर्ण भाषा-स्वरूप पर विचार करें तब भी यही फलित होता है । उदाहरण के तौर पर महावीर के ८४ वर्ष बाद में बडली ( राज० ) में उपलब्ध शिलालेख में मध्यवर्ती व्यंजन का लोप नहीं मिलता, नामिक विभक्ति - 'ते' और 'ये' हैं, उसके स्थान पर 'ए' नहीं है । अशोक के शिलालेखों में ध्वनि विकार का प्रारम्भ हो गया है, घोषीकरण, अघोषीकरण एवं लोप का प्रमाण ५ से ६ प्रतिशत ही है । मौर्यकालीन अन्य शिलालेखों में भी यही प्रमाण है । खारवेल के शिलालेख में घोषीकरण बढ़ गया है । आठ में से छः बार 'थ' का 'ध' मिलता है हालाँकि वर्ण-विकार तो ५-६ प्रतिशत ही मिलता है । विभिन्न प्रकार के प्राचीन उत्कीर्ण लेखों से पता चलता है कि मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति का प्रचलन उत्तर पश्चिम और पश्चिम भारत में सबसे पहले हुआ था । इतना ही नहीं परन्तु मध्यवर्ती 'न' के 'ण' में परिवर्तन भी इसी क्षेत्र की देन है। उत्तर-पश्चिम भारत में प्राप्त ई० सन् प्रथम शताब्दी के तीन लेखों में (पंजतर, कलवान और तक्षशिला; सरकार संस्करण, नं० ३२, ३३, ३४ ) के विश्लेषण से यह साबित होता है कि उनकी भाषा में लोप ३०%, यथावत् स्थिति ५३% और सघोष - अघोष १७% मिलता है) कुल लोप २७, यथावत् ४७, सघोष १३ और अघोष २ = ( ८९ प्रसंग ) । इनमें प्रारम्भिक 'न' का 'ण' में परिवर्तन १००% है और मध्यवर्ती 'न' का ७५% मिलता है । पश्चिम भारत में नासिक, कण्हेरी और जुनर के लेखों में भी लोप एवं सघोष की प्रवृत्ति अधिक मिलती है । 'न' का 'ण' में परिवर्तन भी अधिक मात्रा में उपलब्ध हो रहा है ।
इस ध्वन्यात्मक परिवर्तन की दृष्टि से 'इसिभासियाई' का अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण है । यह भी एक प्राचीन कृति मानी जाती है । शुब्रिंग महोदय द्वारा संपादित संस्करण में अध्याय नं. १,२,३, ५, ११, २९ और ३१ में मध्यवर्ती लोप ११ से ३१% के बीच है, यथावत् स्थिति ४५ से ८१% है । इन सातों अध्ययनों का औसत है—लोप २७३%, यथावत् ६०३% तथा सघोष अघोष १२% 1 इसका संपादन मात्र दो प्रतों के आधार से किया गया है । पाठान्तरों की बहुलता नहीं है जो हमें
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