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६८
फ
भ
योग
०
O
लोप
अ० प्रा०
म० प्रा०
योग
यथावत्
ЗГО ЯГО
४ ४
५
७३९४०
२८ २७
अल्पप्राण और महाप्राण दोनों का योग
८९, १२०, ३७५, ३७७
१४४, १०७, ७१, ७१
विश्लेषण: - विभिन्न प्रतों और संस्करणों के अनुसार
जे
म० प्रा०
सघोष - अघोष
अ० प्रा०
म० प्रा०
योग
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०
८४, १२३%
५, ५%
८९, ११३%
जे
योग ५६४, ७०%
४९०, ७२%
७४, ७०%
०
जे
१०६, १६%
२८, २६%
डॉ० के० आर० चन्द्र
०
०
०
०
o o
० ०
त
११३, १६३%
७, ७%
१२०, १५%
त
४८७, ७०%
७३, ७०%
५६०, ७१%
त
८०, १२%
२७, २५%
१
१ १
३६ ३६ ३२
७४
७३ ६८
५५४, ५६०, ३४१, ३३९
३३६, ५०%
३९, ३६%
३७५, ४८%
हे
२७३, ४०%
५८, ५३%
३४१, ४३%
हे
७१, १०३%
0, 0%
७१, ९%
१
१
३२ ३६
६७
१०७
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७८७
को
३३७, ५०%
४०, ३६%
३७७, ४८%
को
२७२, ४०%
५७, ५३%
३३९, ४३%
१३४, १८३%
१०७, १४%
७१, ९%
लगभग ११% हो
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वि० आ० भा० में लोप प्राप्त होता है और यथावत् स्थिति ७०% है । छठीं शताब्दी की कृति में यह कैसे हो सकता है ? इस अवस्था के लिए ऐसा माना जाता है कि उस काल में बढ़ते हुए संस्कृत के प्रभाव के कारण प्राकृत रचनाओं में तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में होने लगा था। जो कुछ भी हो एक बात स्पष्ट है कि नामक विभक्तियों और क्रिया रूपों में 'त' का प्रयोग अधिक प्रमाण में मिलता है - संग भू० कृ० 'त', पं० ए० व० 'तो', व० का० तृ० पु० ए० व, ति' और मध्यवर्ती 'त' के कुल १९८ प्रसंगों में से मात्र एक स्थल पर 'त' का 'द' ( दोसदि ५३ ) और लोप मात्र १३ स्थलों पर मिलता है जबकि 'त' की यथावत् स्थिति १८४ स्थलों पर उपलब्ध है । इस अवस्था का कारण यही हो सकता है कि रचयिता को भाषा का यही स्वरूप उस समय मान्य था । एक अन्य 'त' प्रत जो उपलब्ध है उसमें लोप १५% मिलता है और यथावत् स्थिति तो ७०% ही है । इनके साथ जब 'हे' एवं 'को' संस्करणों की तुलना करते हैं तो उनमें लोप ४८% और यथावत् स्थिति ४३% रहती है । घोषीकरण
को
७१, १०%
0, 0%
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