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दलसुखभाई मालवणिया अनेक बार मतभेद हुए किन्तु निपटाने की उनकी जो युक्ति थी उसके कारण उनसे किसी का मतभेद रहे ऐसा मैं नहीं जानता। अत्यंत सज्जन और न्याय परायण ऐसे व्यक्ति का दर्शन दुर्लभ है।
संस्था के संचालन में अर्थ की आवश्यकता होती है। उसका जुटाना एक कठिन कार्य होता है। अर्थ व्यवस्था उनका कुटुम्ब और कुटुम्ब से संलग्न अन्य परिवार कर सकने में समर्थ थे, किन्तु उनका विचार था कि यह संस्था समाज की है और समाज का भी सहयोग उनमें होना जरूरी हैऐसा वे मानते थे। अतएव स्थानकवासी समाज के पंजाबी कुटुम्बों में घर-घर जाकर वार्षिक तीस रुपये जैसी रकम वे एकत्र करते रहे । संपन्न परिवार के होते हुए भी उनको इस कार्य में कोई संकोच नहीं था । इस तरह उनके कुटुम्बों को उन्होंने संस्था से संलग्न कर दिया था।
शिक्षा के क्षेत्र के अलावा १९२९ से ही राष्ट्रीय विचारधारा से भी वे प्रभावित थे और खादी पहनना स्वीकार किया था। उन्हें कोई पद की इच्छा नहीं थी, किन्तु ठोस कार्य में रुचि थी। अतएव जिस संस्था को उन्होंने बनाया उसी में पूरा समय देते रहे । फिर भी उनका नाम उनके कार्य के कारण रोशन होना स्वाभाविक था। अतएव हम देखते हैं कि ई० १९४१ में स्था० जैन युवक कान्फरेन्स के प्रमुख बने ।
होली के दिनों में वे अपने मित्रों के साथ बनारस आते और विद्याश्रम के छात्र और अधिकारी तथा युनिवर्सिटी के अध्यापकों के साथ होली खेलते। इस तरह उन्होंने विद्याश्रम के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया था।
पूज्य शतावधानी रत्नचन्द जी का चातुर्मास अमृतसर में हुआ तब उनके परिचय में आये । तब वे जो अर्धमागधी कोष बना रहे थे, उसमें शब्दों का अंग्रेजी रूपान्तर करने में वे सहायक बने । पूज्य सोहनलाल जी को अंग्रेजी अखबार पढ़कर सुनाने का काम भी उन्होंने किया।
उनका अपना परिवार बहुत बड़ा था। उनके छः पुत्र और तीन पुत्रियां हुई। उनके रहते, उनमें से दो पुत्र चल बसे लेकिन उनकी धार्मिक परिणति ऐसी थी कि एक बात ही कहते थे कि मुझे जाना था और वे चले गये। जो कुछ कष्ट आव उसे सद्बुद्धि से सहन करना उनका स्वभाव बन गया । उनकी पत्नी श्रीमती लाभदेवी का भी अवसान सन् १९६० में ही हो गया था। किन्तु उनके परिवार ने उन्हें प्रेम से संभाला।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम का भार उनके द्वितीय पुत्र श्री भूपेन्द्रनाथ जी अच्छी तरह संभाल रहे हैं और उनका अभाव खटकता नहीं, ऐसी निष्ठा से श्री भूपेन्द्रजी कार्य कर रहे हैं ।
अहमदाबाद-९
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