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सन्निष्ठ कार्यकर्ता लाला श्री हरजसराय जी
-दलसुखभाई मालवणिया
ता० २०-६-८६ को तार मिला कि ता० १८-६-८६ को श्री लाला हरजसराय जी का अवसान हो गया । यद्यपि पिछले कुछ वर्षों से वे बीमार तो थे, किन्तु हालात तो ऐसे ही थे कि वे शतायु होंगे। किन्तु हमारी शुभेच्छा और नियति में मेल नहीं । वे ९० वर्ष की आयु में चल दिये।
लाला हरजसरायजी के बड़े भाई लाला रतनचन्दजी से तो मेरी मुलाकात बम्बई में १९३४ में हो हो गई थी। उनको लोग पंजाब का शेर कहते थे। स्थानकवासी कान्फरेन्स में उनका जो रूप देखा वह शेर का ही था। उनके मन में जो अँचे वह बिना किसी हिचक के कह देते थे और अपनी बात पर वे अटल भी रहते थे। मालूम हुआ कि उनका कुटंब ही ऐसा था कि जो भो उचित हो उसका समर्थन करना-अनुचित का अनुसरण नहीं करना । जब उनके बड़ों को मालम हआ कि मोती प्राप्त करने में बड़ी हिंसा होती है तो अपनी कमाई का विचार किये बिना तत्काल ही मोती का व्यापार छोड़ दिया। ऐसा साहस आज के व्यापारी में दुर्लभ है किन्तु यह सत्य घटना हैं। ऐसे ही थे लाला रतनचन्दजी के बेटे श्री शादीलाल जी। वे जब बम्बई के शरीफ बने तब कई तरह की पार्टियां देने का अवसर आया, किन्तु कभी भी मांस का उपयोग उन्होंने पार्टी में नहीं किया। ऐसे कटब में जन्मे लाला हरजसराय जी लाला रतनचन्द जी के छोटे भाई थे, तो कुटुंब के संस्कार उनमें होना स्वाभाविक था। कुटंब की जैन भावना तो उनमें थी ही, उसमें मिले आर्य समाज के विचार और राष्ट्रीय विचार धारा। तब लाला हरजसराय का जीवन एक उच्च सज्जन का होना स्वाभाविक ही था । उनको नई शिक्षा का महत्व ज्ञात था । स्वयं बी० ए० तक पढ़े थे। शिक्षा के विषय में आर्य समाज के नये विचार का प्रभाव उन पर पड़ा और उन्होंने अमृतसर में 'रामाश्रम' के नाम से एक उच्च आदर्शों को लेकर लड़कों और लड़कियों के स्कूल की स्थापना ई० सन् १९३३ में की और जब तक अमृतसर रहे तब तक उसका सुचारु रूप से संचालन करते रहे। जब फरीदाबाद आये तो मंत्री पद छोड़ दिया।
मेरा और उनका प्रथम परिचय १९३७ में बनारस में हुआ। अमृतसर का एक प्रतिनिधिमण्डल शिक्षा संस्था की स्थापना की बात लेकर बनारस पण्डित श्री सुखलालजी के पास आया था। उसमें लाला हरजसरायजी ही मुख्य थे। उनको और उनके साथियों को पंडित जी की यह बात"स्थानकवासी समाज में विद्या की आराधना देखी नहीं जाती, तो आप कुछ उसके लिए करें और स्थानकवासी समाज को विद्या के लिए कुछ करना हो तो बनारस से बढ़कर कोई स्थान हो नहीं सकता", अँच गई। उन सभी ने एकमत से निश्चय किया कि बनारस में पूज्य श्री सोहनलालजी की स्मृति में 'पार्श्वनाथ विद्याश्रम' के नाम से संस्था की स्थापना की जाय । आज हम देखते हैं कि यह संस्था जैन समाज की एक प्रतिष्ठित संस्था बन गई है । इसमें श्री लाला हरजसरायजी का जो योगदान रहा है, वह सदैव विद्वानों को याद रहेगा। जब तक स्वस्थ रहे, वे इस संस्था के मंत्री बने रहे और उसकी समस्याओं का हल जिस सहज बुद्धि से करते रहे, उसका मैं साक्षी हूँ।
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