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सागरमल जैन
शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर में ही उनके व्यक्तित्व की प्रौढ़ता को देखकर यह उक्ति सहज ही याद आती है - " होनहार विरवान के होत चीकने पात" । अध्ययन काल में उन्हें एक नियमित एवं अनुशासित जीवन अत्यन्त प्रिय था । कालेज जाने से पूर्व प्रातःकाल उठकर कमरे की सफाई करते तथा बिस्तर, मेज, कुर्सी एवं कमरे की समस्त वस्तुओं को सुव्यवस्थित करते थे । अध्यवसाय हेतु उनका निर्धारित समय था, जिसमें सामान्यतया परिवर्तन सम्भव न था । अनावश्यक समय की बरबादी एवं अर्थहीन वार्तालाप उन्हें प्रिय न थे । उनके सहपाठी तथा परिचित छात्र उनकी नियमित दिनचर्या, सहज स्वभाव, साफ-सुथरे एवं प्रसन्नचित्त व्यक्तित्व के कारण उन्हें बहुत पसन्द करते थे । कदाचित ही कोई दिन ऐसा बीता हो, जिस दिन सुबह एवं शाम की प्रार्थना में उन्होंने व्यतिक्रम आने दिया हो । अमृतसर से मैट्रिक तक की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने १९१५ में लाहौर के गवर्नमेण्ट कालेज से इण्टरमीडियेट स्तर की शिक्षा ग्रहण की, जहाँ वे साहित्य के विद्यार्थी बने । अपने जीवन के प्रारम्भिक काल से ही वे पूर्णतः शाकाहारी थे । इसी काल तक वे एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे । लेकिन उन्होंने अध्यवसाय में ढिलाई नहीं आने दी । कक्षाओं की समाप्ति पर सायंकाल व्यायाम हेतु क्रीड़ा प्रांगण में जाते थे, जहाँ उनका प्रिय खेल हॉकी था, उसका जमकर अभ्यास करते थे । इसके अतिरिक्त तैराकी, बोटिंग एवं स्काउटिंग में भी उनकी पर्याप्त रुचि थी ।
इसी अनुक्रम में लालाजी ने १९१७ में इण्टरमीडियेट की परीक्षा उत्तीर्ण करके स्नातक बनने के लिए लाहौर के गवर्नमेण्ट कालेज में प्रवेश लिया । सन् १९१९-२० तक उन्होंने स्नातक की शिक्षा पूर्ण की। इस काल में भी उन्होंने जीवन-चर्या के लिए निर्धारित सिद्धान्तों में कोई कमी न आने दी । उनका प्रमुख ध्येय था - जीवन को पूर्णतः सादा एवं निर्दोष रखना, जिसके लिए वे जीवन पर्यन्त संघर्षरत रहे ।
राष्ट्रभक्ति तो उनके नस-नस में समायी हुई थी, जिसके निमित्त वे विद्यार्थी जीवन से ही खादी वस्त्रों को धारण करते थे और धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर कर राजनैतिक चैतन्यता लाने के लिए सोचते रहते थे । जिस समय वे अपना अध्ययन पूर्ण कर रहे थे, उस समय महात्मा गांधीजी के आह्वान पर देश के कोने-कोने में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनैतिक अनाचारों तथा कुरीतियों को लेकर जनाक्रोश जागृत हो रहा था । राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के लिए विदेशी वस्तुओं को बहिष्कृत कर स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग पर जोर दिया जा रहा था। इन सबका व्यापक प्रभाव लालाजी पर पड़ना स्वाभाविक था जिसके फलस्वरूप उन्होंने एक राष्ट्रसेवक के रूप में अपने आपको समर्पित कर दिया । खद्दर तो वे पहले से ही धारण करते थे । राष्ट्र की चेतनता हेतु वे शिक्षा को आवश्यक मानते थे । इस सन्दर्भ में उनकी मान्यता थी कि शिक्षा ही वह तत्व है, जो व्यक्ति को संस्कार सम्पन्न करने के साथ राष्ट्रीय चरित्र के उन्नयन में अग्रणी भूमिका निभा सकती है। शिक्षा के महत्त्व को हृदयंगम करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति को विकसित करने के लिए सन् १९२३
अमृतसर में श्रीराम आश्रम हाई स्कूल की आधारशिला रखी। नारियों को शिक्षित करने के प्रति वे कितने संवेदनशील थे, इसका आभास श्रीराम आश्रम हाई स्कूल में प्रारम्भ की गयी सहशिक्षा से हो जाता है । वे मानते थे कि समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं कुरीतियों को जड़ से मिटाने के लिए पुरुष एवं स्त्री दोनों को शिक्षित करना अनिवार्य है, और यह शिक्षा व्यवस्था साथ-साथ सम्पन्न हो तो इसके दो प्रमुख लाभ हो सकते हैं । एक तो यह कि दोनों को एक-दूसरे को समझने का अवसर
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