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यश निलिप्त जैनविद्या के निष्काम सेवक बाबू हरजसराय जी जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
-सागरमल जैन -उमेश चन्द्र सिंह
विश्व एक ऐसा रंगमंच है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के अभिनय का पटाक्षेप हुआ करता है। शेष रह जाते हैं-जीवन के खट्टे-मीठे संस्मरण । मृत्यु एक जीवन का अन्त है, तो दूसरे का आदि बिन्दू । इसमें घटित अनेक घटनायें तो सामान्य हुआ करती हैं, लेकिन कुछ व्यक्तियों को कार्यशैली और जीवनादर्श ऐसे होते है कि वे युगों तक याद किये जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों में एक थेलाला हरजसराय जी जिन्होंने अपने ९० वर्ष की सुदीर्घ जीवन-यात्रा में यश और शोहरत से निलिप्त रहकर मूल्यात्मक शिक्षा के समग्र विकास एवं उन्नयन हेतु निष्काम भाव से समाज सेवा की। परिवर्तन प्रकृति का नियम है । मानव जीवन में इसकी परिणति जरा और मृत्यु की क्रमबद्ध व्यवस्था के अधीन सहज एवं स्वाभाविक रूप से होती है। यद्यपि जन्म लेने वाले की मृत्यु स्वाभाविक है, किन्तु बाबू हरजसराय जी का निधन समाज को व्यथित कर गया। हालांकि आज वे हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके द्वारा किये गये कार्य और उनके जीवनादर्श हमारे समक्ष उनके सूक्ष्म शरीर के रूप में विद्यमान हैं । जैन समाज में विद्या के क्षेत्र में उनके द्वारा की गयी सेवाओं को निश्चित ही युगों तक याद किया जायेगा।
लाला हरजसराय जी का जन्म अमृतसर के प्रसिद्ध एवं सम्मानित परिवार में लाला जगन्नाथ जी जैन के यहाँ १३ अक्टूबर १८९६ ई० को हुआ था । यह परिवार अपनी समृद्धता तथा दानशीलता के लिए प्रसिद्ध रहा है। भाइयों को शृंखला में वे द्वितीय स्थान पर थे, जबकि लाला रतनचन्द जी इनके ज्येष्ठ भ्राता एवं लाला हंसराज जी कनिष्ठ भ्राता थे। उनके अग्रज लाला रतनचन्द जी बम्बई के भूतपूर्व शेरिफ श्री शादीलाल जी जैन के पिता थे। सन् १९११ में पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह श्रीमती लाभदेवी से हुआ, वे स्यालकोट के प्रसिद्ध हकीम लाला बेलीराम जी जेन की सुपुत्री थीं। लाला बेलीराम जी के सुपुत्र एवं श्रीमती लाभदेवी के भ्राता लाला गोपालचन्द्र जी जैन भारत विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान में ही रहे और कालान्तर में अपनी योग्यता के कारण पाकिस्तान सरकार द्वारा सम्मानित किये गये।
"चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग" जैसो कहावत उनके जीवन में कितनी अधिक चरितार्थ हुई, इसका अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि एक सफल व्यवसायी परिवार में जन्म लेने तथा अल्पवय में ही गृहस्थी में आबद्ध हो जाने के उपरान्त भी उन्होंने अपने शिक्षाक्रम को न केवल अबाध गति से जारी रखा, वरन् अमृतसर के जैन समाज के सर्वप्रथम स्नातक होने का गौरव भी प्राप्त किया।
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