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यश निलिप्त जैन विद्या के निष्काम सेवक बाबू हरजसराय जी जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मिल सकता है तथा दूसरे-उन्हें अपने बीच विभिन्न असमानताओं को कम करते हुए राष्ट्रीय धारा में कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का साहस प्राप्त हो सकता है। इसीलिए वे इस स्कूल की स्थापना काल से लेकर सन् १९६६ तक सक्रिय रूप से इसके संचालन में लगे रहे, जब तक कि उनका परिवार स्थायी रूप से फरीदाबद आकर बस नहीं गया ।
शिक्षा और साहित्य के प्रति कालान्तर में उनकी रुझान और प्रखर हो गयी, जब उन्होंने यह चिन्तन किया कि प्राचीन जैनधर्म, दर्शन एवं साहित्य के विविध पहलुओं का गम्भीर अध्ययन किया जाना चाहिए । अतः इस हेतु उन्होंने अपने मित्रों से परामर्श करके १९३६ ईस्वी में सोहनलाल जैनविद्या प्रसारक समिति, अमृतसर की स्थापना की। पुनश्च जैनविद्या के अध्ययन एवं शोध के विस्तृत आयामों को दृष्टिगत रखते हुए भगवान् पार्श्वनाथ की पुनीत जन्मस्थली काशी में सन् १९३७ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान की स्थापना की तथा जीवन पर्यन्त प्राणपण से इसका विधिवत् संचालन करते रहे।
___जैनविद्या एवं प्राकृत भाषा के विकास में उनकी पर्याप्त रुचि थी। अपनी शैक्षिक प्रवृत्ति के कारण ही जहाँ उन्होंने इन दोनों शिक्षा-संस्थानों के संस्थापक बनने का गौरव प्राप्त किया, वहीं शतावधानी रतनचन्द्र जी म. सा० द्वारा तैयार किये गये अर्धमागधीकोश के निर्माण में भी योगदान दिया। इस कार्य में उन्होंने मुनि जी को प्राकृत शब्दों के अंग्रेजी पर्याय तलाशने में सहयोग प्रदान किया।
उन्होंने न केवल शिक्षा के माध्यम से ही राष्ट्र को योगदान दिया, अपितु सक्रिय रूप से राजनीति में भी हिस्सा लिया। १९२९ ई० की लाहौर कांग्रेस जिसके द्वारा राष्ट्रवासियों को सम्पूर्ण आजादी का नारा दिया गया था. में उन्होंने एक स्वयंसेवक बनकर सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया। उनका जीवन प्रारम्भ से ही सामाजिक चेतना के लिए समर्पित रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में संयोग से उनकी डायरी के कुछ पन्ने मिले हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे अपने जीवन के प्रारम्भिक काल से ही सामाजिक गतिविधियों में पर्याप्त रुचि लेते थे। सन् १९३७ में उनका सामाजिक सुधार को लेकर श्री आनन्दराज सुराना से जो कि उस समय 'अखिल भारतीय जनसंघ सुधार-समिति' के सचिव थे, पर्याप्त पत्र-व्यवहार हुआ था।
स्काउट के क्षेत्र में उनकी रुचि विद्यार्थी जीवन में ही हो गयी थी। उनमें स्काउट की सेवा भावना का बीज जीवन के प्रारम्भ में ही अंकुरित हो चुका था, जो निरन्तर पुष्पित एवं पल्लवित होता रहा। स्काउटिंग के प्रति अपनी विशिष्ट अभिरुचि के कारण ही वे अमृतसर स्काउट एसोशियेशन के सदस्य बने । वे १९३३ में अजमेर के स्थानकवासी जैन साधु-सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे और उन्होंने उस सम्बन्ध में अपना स्वतंत्र चिन्तन व्यक किया था। प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी एवं सम्पूर्ण क्रान्ति के प्रणेता श्री जयप्रकाश नारायण से भी उनका निकटतम सम्पर्क रहा। समाज सेवा के कार्यों के सम्पादन हेतु उन्हें आपने पर्याप्त आर्थिक सहायता भी प्रदान की।
साहित्य के साथ-साथ ज्योतिष के क्षेत्र में भी उनकी रुचि उल्लेखनीय थी। पूज्य सोहनलाल जी म० सा० ने जो जैन पंचांग बनाया था, उसके सभी अंगों का न केवल उन्हें ज्ञान था, अपितु समाज में मान्यता प्राप्त करवाने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया था। यद्यपि यह दुःख के साथ
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