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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पाँच सम्प्रदायों का आचार्य पद प्राप्त हो गया। यह व्यवस्था उस समय तक के लिये की गई जबतक कि पुनः बृहत् साधु-सम्मेलन का आयोजन किया जाना था।
प्रधानमंत्री पद-स्थानकवासी जैन समाज को सुसंगठित करने में अखिल भारतीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फरेंस ने घोर प्रयत्न किया तथा उसके परिणामस्वरूप सादड़ी में एक विराट् साधुसम्मेलन का आयोजन किया गया । इस सम्मेलन में पंजाब, राजस्थान, मालवा, मेवाड़, मारवाड़ तथा महाराष्ट्र आदि सभी प्रान्तों के मुनिराजों ने भाग लिया तथा सभी ने एक स्वर से अपने-अपने सम्प्रदाय की पदवियों का त्याग कर एक आचार्य के नेतृत्व में "श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ" की स्थापना की तथा जैनधर्मदिवाकर परम श्रद्धेय श्री आत्माराम जी महाराज को प्रधानाचार्य, स्वनामधन्य पूज्य श्री गणेशीलाल जी महाराज को उपाचार्य पद तथा हमारे चरितनायक पण्डितरत्न पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को श्रमण संघ के प्रधानमन्त्रित्व का दायित्व सोंपा गया।
प्रधानमन्त्री का पद अत्यन्त दुष्कर एवं जिम्मेदारी से भरा हुआ होता है, क्योंकि संघ के बनाए हुए नियम आदि सब उसी के द्वारा क्रियात्मक रूप धारण करते हैं। हमारे चरितनायक ने बड़ी धीरता एवं गम्भीरता से अपने मन्त्री पद के उत्तरदायित्व को निभाया। यद्यपि आपको अपने कार्यकाल में अनुकूल तथा प्रतिकूल, दोनों प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। प्रशंसा-प्राप्ति के साथ अनेकों आरोपों को भी झेलना पड़ा, किन्तु आपकी धीरता ने कभी भी अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं किया। विरोधी वातावरण में भी शान्ति और सहिष्णुता ने आपका साथ नहीं छोड़ा तथा जिस कार्य को भी आपने अपने हाथ में लिया, उसे सफल बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया तथा आपकी अद्वितीय कार्यक्षमता के फलस्वरूप सादड़ी के बृहत् साधु-सम्मेलन में आचार्य, उपाचार्य, प्रधानमन्त्री एवं मन्त्री पदों की जो घोषणा की गई थी, उसके अनुसार भीनासर-सम्मेलन में आपको उपाध्याय बना दिया गया।
श्रमण संघ के सर्वोच्च अधिकारी (प्रधानाचार्य)-पाठकों को विदित है कि सादड़ी में हुए महासम्मेलन में दिवंगत आचार्य प्रातःस्मरणीय पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज को श्रमण संघ के प्रधानाचार्य का पद दिया गया था। उस समय विक्रम सम्वत् २००६ चल रहा था। भूतपूर्व आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज की प्रशंसा करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में आपने संयम ग्रहण किया था और उसके पश्चात् आपने जैन एवं जैनेतर साहित्य का गंभीरतम अध्ययन किया । संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के तो आप ऐसे उच्चकोटि के विद्वान थे कि आपकी सानी का अन्य विद्वान मिलना कठिन था। एक जर्मन प्रोफेसर ने तो आपको शास्त्रीय ज्ञान का चलता-फिरता पुस्तकालय बताया था। वि० सं० १९९६ में आपको पंजाब का उपाध्यायपद तथा विक्रम सं० २००६ में सादड़ी-सम्मेलन के अवसर पर "श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ" का आचार्य पद दिया गया।
किन्तु श्रमण संघ पर आपका वरदहस्त केवल दस वर्ष तक ही रहा तथा वि० सं०२०१६ में कैंसर रोग ने आपको चिरनिद्रा में सुला दिया और श्रमण संघ पुनः छत्रविहीन हो गया। श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जा महाराज के देहावसान के पश्चात् श्रमण संघ के अधिकारियों के समक्ष पुनः समस्या उठ खड़ी हुई कि अब किन्हें नवीन आचार्य बनाया जाय ? अखिल भारतवर्षीय जैन कान्फरेंस ने श्रमण संघ के समस्त प्रमुख मुनिराजों से इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना प्रारम्भ किया। अनेक स्थानों पर विशिष्ट मण्डल भेजे गए, फलस्वरूप अनेक सुझाव भी सामने आए। तदनन्तर जैन कान्फरेंस ने आचार्य पद का निर्णय करने के लिये बम्बई में अपनी जनरल कमेटी की मीटिंग बुलवाई।
उस अवसर पर विद्वानों तथा गम्भीर विचारकों ने अपने विचार इसप्रकार व्यक्त किये कि"स्वर्गवासी आचार्य परमश्रद्धेय पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज स्वयं दूरदर्शी थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ही पंडितरत्न पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को कार्यकारिणी का संयोजक बनाकर अपना
जय रिया
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