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ज्योतिर्धर आचार्यश्री आनन्दऋषि : जीवन दर्शन
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रक्षण हेतु सदा हो सेना, सजी हुई चतुरंगी।
काल बली ले जाएगा, देखेंगे साथी संगी। यही विचार कर चरितनायक ने अपने हृदय को सम्हाला तथा मानस में उठ रहे गुरु-वियोगजन्य दुःख के तीव्र तूफान को शमन करने का प्रयत्न किया। गुरुदेव के अभाव में अपने आपको कर्तव्य-भार से बोझिल मानकर उन्होंने अपने छोटे गुरुभाई मुनि श्री उत्तमऋषि जी को सान्त्वना प्रदान की तथा उनके व्याकूल एवं उद्विग्न मन को समझा-बुझाकर शांत किया।
गुरुदेव के निधन के पश्चात् ही उनका समाज से तथा सुश्रावकों से सम्पर्क बढ़ा तथा प्रवचन आदि का सम्पूर्ण भार उन पर आगया। किन्तु चौदह वर्ष के दीक्षित जीवन में आपने ऐसी बहुमुखी प्रतिभा हासिल कर ली थी कि किसी भी दिशा में आपको असफलता का सामना नहीं करना पड़ा, सफलता सदा ही आपके चरण चूमती रही। इसका प्रमाण यही है कि एक दिन सामान्य मुनि कहलाने वाले श्री आनन्दऋषि जी महाराज आज श्रमण संघ के सर्वोच्च पद पर आसीन हैं, अर्थात् आचार्य पद को सुशोभित कर
आप अपने नाम के अनुरूप ही आनन्द की साकार प्रतिमूर्ति हैं तथा सहज सरलता, मृदुता एवं समयसूचकता आदि अनेकानेक गुणों के आगर हैं। सबसे बड़ी विशेषता आपकी यही है कि जिस प्रकार घास के एक पूले से सागर गरम नहीं होता उसी प्रकार परिस्थितियों की विषमताएँ आपको कभी भी विक्षब्ध नहीं कर पातीं। ऐसा लगता है मानो सन्तोष और धैर्य का असीम सागर ही आपके मानस में लहराया करता है । समझ में नहीं आ पाता है कि आपके किस-किस रूप पर प्रकाश डाला जाय, सभी तो एक दूसरे को मात करने वाले हैं।
तपोपूत जीवन प्रत्येक साधक को अपने साध्य की प्राप्तिहेतु अनेक उपयुक्त साधन जुटाने पड़ते हैं। मुख्य रूप से वे साधन ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप हैं। यहाँ पर मैं भी हमारे चरितनायक आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के तपोमय जीवन पर प्रकाश डालने जा रही हैं।
आपने ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के साथ-साथ तप की भी पूर्णतया आराधना की है। केवल तेरह वर्ष की अल्पवय में संयम ग्रहण करके भी आपने भली-भांति समझ लिया था कि तप-धर्म की साधना यद्यपि दुष्कर है किन्तु आत्मा को मुक्तावस्था की ओर ले जानेवाली है, इसीलिये दीक्षित होने के अल्पकाल के पश्चात् ही आपने अष्टमी एवं पक्खी के दिन कभी आयंबिल और कभी उपवास करना प्रारम्भ कर दिया था । वर्षों तक यही क्रम चलता रहा। किन्तु जब आपके गुरुदेव पूज्य श्री रत्नऋषि जी महाराज का स्वर्गवास हुआ, आपके मानस में और भी विरक्ति आ गई तथा आपने उनके निधन के पश्चात् ही पाँचों तिथियों में आयंबिल करने का निश्चय किया।
कुछ वर्षों के पश्चात् जब इससे भी सन्तोष अनुभव न हुआ तो आपने एक ममय आहार लेना प्रारम्भ किया। सायंकालीन भोजन करना छोड़ दिया और उनोदरो तप को पराकाष्ठा तक पहुंचाया। इस प्रकार केवल वाणी से ही नहीं, अपितु क्रियात्मक रूप से संसार के समक्ष आदर्श उपस्थित करते हुए बताया कि मिताहार मानसिक एवं शारीरिक समाधि का साधक है और इसीलिये आगमों में साधक को 'मियासणे' कहा गया है।
आचार्य श्री जी की तप के प्रति बड़ी अटूट आस्था है। यही कारण है कि आज अपनी इस वृद्धावस्था तक भी आप एक समय ही आहार करते चले जा रहे हैं। साथ ही अष्टमी एवं पक्खी को आयंबिल अथवा उपवास करना तो छोड़ते नहीं हैं पर प्रत्येक चातुर्मास के प्रारम्भ में एक महीने तक लगातार एकासन भी करते हैं। भले ही स्वास्थ्य समीचीन रहे या नहीं, आपकी तपसाधना में व्यतिक्रम नहीं होने पाता।
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