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आचार्मप्रवभिआचार्यप्रवभिनय श्राआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दा अन्य५१
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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
हमारे चरितनायक ने जैनागमों का काफी ज्ञान तो पूर्व में हो कर लिया था अतः त्रिपाठी जी से "अलगुत्तरपदे' सूत्र का अध्ययन प्रारम्भ किया तथा धीरे-धीरे व्याकरण शास्त्र में सिद्धान्त कौमुदी, जैनेन्द्र व्याकरण, शाकटायन व्याकरण तथा प्राकृत व्याकरण पड़ा । साहित्य में-साहित्यदर्पण, काव्यानुशासन, नैपधीयचरित आदि का ज्ञान किया। स्मृतियों में-अठारह स्मृतियाँ एवं न्यायशास्त्र में-न्यायसिद्धान्तमुक्तावली का बोध प्राप्त किया। साथ ही छंद शास्त्रों में-पिंगलशास्त्र का परिशीलन कर लिया। इन सबके अतिरिक्त आपने प्राकृत, संस्कृत, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी, उर्दू, फारसी एवं अंग्रेजी, इस प्रकार नौ भाषाओं पर भी अपना अधिकार किया।
कहने का आशय यही है कि अपनी विलक्षण बुद्धि एवं अटूट लगन से आपने जैन एवं जैनेतर सिद्धान्तों का गम्भीर ज्ञान करते हुए प्रशंसनीय विद्वत्ता प्राप्त की तथा व्यक्ति को जहाँ एक-दो भाषाओं पर अधिकार करना भी कठिन होता है, वहाँ आपने नौ भाषाओं पर अपना आधिपत्य जमा लिया । यद्यपि अब आपकी उम्र ७४ वर्ष के करीब हो चुकी है तथा शारीरिक दुर्बलता के कारण आपकी आवाज उतनी तेज नहीं रही, किन्तु आज भी आपके प्रवचनों को सुनकर सहज ही अन्दाज लगाया जा सकता है कि युवावस्था में आपकी वाणी कितनी बुलन्द रही होगी। मुझे कई बार आपके मर्मस्पर्शी एवं ओजपूर्ण प्रवचनों को सुनने का अवसर मिला है और उस समय आपकी वाणी की तेजस्विता तथा प्रत्येक भाषा के पदों को अत्यन्त मधुर एवं मनोमुग्धकारी ढंग से गाने की क्षमता देखकर दंग रह जाना पड़ा है। सबसे विलक्षण बात तो यह है कि अनेक भाषाओं का ज्ञान होने के कारण आप जिस भाषा में भी बोलना प्रारम्भ करते हैं, इस प्रकार शुद्ध एवं धाराप्रवाह बोलते चले जाते हैं, मानो वह आपकी अपनी ही मातृभाषा है।
यह सब प्रताप प्रातःस्मरणीय गुरुदेव पूज्यपाद श्री रत्नऋषि जी महाराज का था, जिन्होंने अपने दुःख-सुख एवं वृद्धावस्था की रंचमात्र भी परवाह न कर अपने तेजस्वी शिष्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को योग्यतम बनाने का प्रयास किया और तबतक प्रयत्न करना नहीं छोड़ा जबतक उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हो गई।
उसके पश्चात् 'अल्लीपुर' नामक गाँव में वि० सं० १९८४, ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमी के दिन अपने छोटे शिष्य मुनि श्री उत्तमचन्द्र जी को चरितनायक एवं प्रिय शिष्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के हाथों में सौंपकर श्री रत्नऋषि जी महाराज परलोकवासी हुए।
चरितनायक को अपने गुरुदेव के वियोग का जो मर्मान्तक दुःख हआ, उसकी अभिव्यक्ति लेखनी नहीं कर सकती। उस समय जब कि गुरु की छत्रछाया उनके मस्तक पर से हट गई थी, आचार्य श्री जी की उम्र केवल सत्ताईस वर्ष की थी तथा दीक्षा ग्रहण किये हुए चौदह वर्ष ही व्यतीत हुए थे।
उन चौदह वर्षों में भी उनके गुरुदेव परमप्रतापी श्री रत्नमुनि जी महाराज ने रात को रात और दिन को दिन न समझते हुए अपना सम्पूर्ण प्रयत्न और सम्पूर्ण शक्ति एकाग्र करके अपने प्रिय शिष्य की शिक्षा-दीक्षा में लगाई । अहनिशि उनका ध्येय अपने शिष्य को उन्नति के सर्वोच्च सोपान पर पहुंचाने का बना रहा और वे अपने प्रयत्न में सफल भी हुए। मानो पूर्व में ही उन्हें अपने मृत्युकाल का आभास हो गया हो, इस प्रकार निरन्तर तीव्र तथा अविराम गति से उन्होंने शिष्य की प्रगति करवाते हुए मात्र सत्ताईस वर्ष की उम्र में ही महान् विद्वान एवं गम्भीर विचारक बना दिया।
ऐसे गुरु के विछोह का दुःख होता भी क्यों नहीं, जिनकी स्नेहमयी छत्र-छाया में समस्त अन्य प्रपंचों से दूर रहकर वे केवल मां सरस्वती की आराधना करते रहे तथा आत्मिक गुणों को निखारते रहे । किन्तु काल पर किसका वश चला है ? वह तो लाख प्रयत्न करने पर भी तथा पद-पद पर प्रहरियों की नियुक्ति कर लेने पर भी अपने निर्धारित समय पर जीव को ले जाता है। कहा भी है
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