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आचार्य प्रव अभिनन्दन
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८ आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
निष्ठा की पावन ज्योति से सदा ज्योतिर्मान रहता है । जिसे देव, गुरु, धर्म पर अटूट श्रद्धा नहीं होती, जो क्षण-क्षण में अपना विश्वास बदलता रहता है, ऐसा अव्यवस्थित चित्त वाला व्यक्ति आचार्यपद के समुज्ज्वल एवं तेजस्वी सिंहासन पर आसीन नहीं हो सकता । हमारे महामहिम आचार्यसम्राट पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज पूर्ण श्रद्धावान महापुरुष हैं, जिनेन्द्र-वाणी के पूर्ण रसिया हैं, जैनागमों की प्रत्येक पंक्ति के प्रत्येक अक्षर पर इनको अटूट श्रद्धान है। जैनागमों के प्रति अगाध श्रद्धा या तो जैनधर्मदिवाकर, साहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकार, आचार्यसम्राट, परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के जीवन में देखी या फिर जैनदर्शन एवं प्राकृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान आचार्यदेव पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज के जीवन में देखने को मिली। मैंने स्वयं अनुभव की आँखों से देखा है कि ये दोनों महापुरुष जैनागमों के प्रत्येक अक्षर को भगवान की वाणी तथा मन्त्रस्वरूप मानकर चलते रहे हैं । आज के वैज्ञानिक युग में व्याख्यानमंच पर बैठकर लच्छेदार भाषा में मञ्जुल प्रवचन किये जा सकते हैं, विद्वानों और विचारकों के हृदयों को छूने वाले लेख भी लिखे जा सकते हैं, परन्तु जैनागमों पर सच्ची आस्था रखना और उन्हीं को अपना श्रद्धा केन्द्र मानकर चलना तथा जिनेन्द्रभगवान प्ररूपित सिद्धान्तों की परिधि में रहते हुए अपने विषय का प्रतिपादन करना साधारण बात नहीं है । हम सबका यह सौभाग्य है कि हमारे आचार्यप्रवर पूज्य श्री आनन्दऋषि जी में यह विशेषता सवा सोलह आने उपलब्ध होती है ।
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२. सत्यवादी - जो वस्तु जिस रूप में है, उसे उसी रूप से अभिव्यक्त करना सत्य है । सत्य का भाषण करने वाला व्यक्ति सत्यवादी होता है । सत्य बोलने वाला मनसा, वाचा, कर्मणा सत्य को भगवान मानकर उसकी आराधना एवं परिपालना करने वाला तथा असत्य से सर्वथा दूर रहने वाला व्यक्ति आचार्यपद की विभूषा से विभूषित हो सकता है। जिस व्यक्ति का अपनी भाषा पर नियन्त्रण नहीं है, बिना सोचेसमझे जो मुँह में आया बोल देता है और जो भाषा को सत्य के सौरभ से सुरभित नहीं कर पाता वह
व्यक्ति आचार्यपद के समुच्च और आदरास्पद दायित्व को अभिगत नहीं कर सकता। हमारे सन्तशिरोमणि, पण्डितरत्न पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज प्रत्येक दृष्टि से सत्यवादी हैं । ये सदा सत्य बोलते हैं, सत्य लिखते हैं, सत्य पढ़ते हैं, सत्य पढ़ाते हैं और निरन्तर यत्र-तत्र सर्वत्र सत्य के ही पावन दीप जगाते हैं । स्वनामधन्य आचार्यश्री किसी भी शब्द को रसना से निकालने से पहले उसे तोलते हैं, उसके हानि-लाभ का विचार करते हैं और जो बोलते हैं फिर उसे जीवन में ढालते हैं। किसी को कुछ कह दिया और किसी को कुछ और ही कह दिया, ऐसी स्थिति पूज्य आचार्यदेव की नहीं है । ये अपनी बात के पूरे धनी हैं, अपनी कथित बात से रत्ती भर भी इधर-उधर नहीं होने पाते । लोगों की कानाफूसी से अपनी स्थिति को डाँवाडोल नहीं करते । स्थानकवासी जैनसमाज का यह सौभाग्य मानता हूँ, जिसे ऐसे सत्यवादी नेता आचार्य के रूप में सम्प्राप्त हो रहे हैं ।
३. मेधावी - मेधा धारणा-शक्ति का नाम है । मेधावान व्यक्ति ही आचार्य के गौरवास्पद स्थान को प्राप्त कर सकता है । हमारे शास्त्रविशारद, आचार्यवर पूज्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज एक मेधावी युग-पुरुष हैं। ये प्राचीन भाषाओं में संस्कृत और प्राकृत तथा प्रान्तीय भाषाओं में से हिन्दी, मराठी, गुजराती, उर्दू, फारसी, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा के बड़े अच्छे जानकार हैं, आज इन भाषाओं पर इनका वाञ्छनीय अधिकार है । इन विविध भाषाओं का परिज्ञान मेधावी व्यक्ति के बिना कौन कर सकता है । इन भाषाओं में उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। अपनी ओजस्विनी मेधाशक्ति के बल पर अनेकों धर्मसंस्थानों तथा अनेकों शिक्षण संस्थाओं को जन्म दिया है। मेवा - प्रकर्ष के कारण ही इन्होंने समाज की अनेकों उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाकर समाज को शान्त वातावरण प्रदान किया है । इनके मेधावी जीवन के अन्य अनेकों चमत्कार दृष्टिगोचर होते हैं । उदाहरणार्थ अपनी अनुभूत एक दो घटनाएँ प्रस्तुत करता हूँ ।
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