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मेरे गुरुदेव
मेरी मातुश्री धार्मिक आचार-विचार एवं सम्यक श्रद्धा सम्पन्न थीं। अहनिश आत्मसाधना के लिये समुद्यत रहती थीं। परिवार के लालन-पालन में, संतान को नैतिक बनाने में प्रयत्नशील रहती थीं। प्रतिदिन सूर्योदय के समय सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धार्मिक अनुष्ठानों से प्रारम्भ होकर रात्रिशयन तक उनका ही पारायण होता रहता था। जीवन में संतोष था अतः परिवार में सुख-शान्ति भी स्वयं अठखेलियाँ करती थी। न आकांक्षा थी और न लालसा और जब ये दोनों नहीं थीं तो ईर्ष्या की उपस्थिति कैसे हो सकती थी।
इसी बीच कविकुलभूषण पं० रत्न पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषि जी म० के पट्टधर शिष्य गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी म० का पर्दापण मेरी जन्मभूमि चिंचोडी में हुआ । गुरुदेव का पदार्पण मेरी मातुश्री के लिये आह्लादकर हुआ और मेरे जीवन के लिये एक नवोन्मेष का संवाहक बना। गुरुदेव के पदार्पण होते ही मातुश्री हुलासबाई ने हुलसित होकर भावना व्यक्त की-बेटा ! नेमिचन्द, सामायिक तो मैं कर लेती हैं, लेकिन प्रतिक्रमण याद न होने से यथाविधि नहीं हो पाता और गाँव में भी अन्य किसी को प्रतिक्रमण नहीं आता। अतः इस शुभ योग को प्राप्त कर प्रतिक्रमण सीख ले ।
संभवतः आज के समय में मेरे बाल्यजीवन का उक्त प्रसंग महत्त्वपूर्ण प्रतीत न हो, लेकिन यह अवश्य प्रतिभासित कर देता है कि उस समय का जन जीवन धार्मिक संस्कारों के अर्जन के लिए उत्सुक होते हुये भी ज्ञानाभ्यास के साधनों के सुयोग से वंचित था । संत मुनिराजों, विद्वानों का संयोग क्वचित् एवं कादाचित्क था। ऐसे समय में आचार संपदा के धनी गुरुदेवश्री ने ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में धार्मिक ज्ञान विकास के लिये प्रयास किये। सामायिक प्रतिक्रमण आदि के प्रारम्भिक ज्ञान से लेकर सूत्रों के अभ्यास की ओर जनमानस को तत्पर बनाया।
हाँ तो 'मन भावै और वेद बतावै' के अनुसार मैं प्रतिक्रमण को कंठस्थ करने के लिये तैयार हुआ। मैं ही नहीं, अन्य समवयस्क बंधु भी सीखने लगे। उत्साह एवं स्पर्धा से बहुत थोड़े समय में प्रतिक्रमण कंठस्थ करने के बाद थोकड़ों को कंठस्थ करने लगा । भक्तिपूर्ण पद भी कुछ याद हो जाने से यथावसर गीत के स्वरों को भी गुनगुनाने लगा। श्रोताओं को भी सुख मिलता एवं स्वयं में आनन्दानुभूति करता ।
इस अनुभूति और अभ्यास से मैं इस निष्कर्ष पर आया कि सुख बाह्य में नहीं अन्तर में है, सांसारिक कार्यों में नहीं आध्यात्मिक साधना में है। अपने विचारों को गुरुदेव के श्रीचरणों में निवेदन किया कि अपने अन्तेवासी के रूप में मुझे अंगीकार कर लीजिये । गुरुदेव ने भावना की अनुमोदना करते हुये भी फरमाया कि आयुष्मन् ! अपने पारिवारिक जनों, माता, भाई आदि की स्वीकृति प्राप्त
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