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भगवान महावीर ने एक स्थान पर कहा है
जीवन विकास का सोपान - अनुशासन
नच्चा नमइ मेहावी लोए किसी से जायइ । हवइ किच्चाणं सरणं भूयाणं जगई जहा ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र १-१५
बुद्धिमान पुरुष वही है जो विनय का महत्व समझकर विनम्र बनता है । विनम्र बनने से उसकी कीर्ति बढ़ती है और वह सद् अनुष्ठानों का इसी प्रकार आधारभूत होता है जैसे समस्त प्राणभूतों के लिये पृथ्वी ।
बन्धुओ ! प्रत्येक आत्मोन्नति के इच्छुक व्यक्ति को शास्त्र का श्रवण और उसका पठन-पाठन करना चाहिये तथा उसके द्वारा प्राप्त होने वाली शिक्षाओं को जीवन में उतारना चाहिये । शास्त्र की पहली शिक्षा अनुशासन है और अनुशासन का मूल श्रद्धा व विनय है। इनकी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यकता है । इनके महत्व को न मानने वाला व्यक्ति कहीं भी आदर सम्मान नहीं पाता। अगर हम अनुशासन के महत्व को समझ लेते हैं और अनुशासन के मुख्य लक्षण श्रद्धा व नम्रता को अपना लेते हैं तो वह दिन दूर नहीं, जब कि हम अपने जीवनोद्देश्य की प्राप्ति कर लेंगे तथा अपने जीवन को सफल बना सकेंगे ।
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आनन्द-वचनामृत
ज्ञान अग्नि है, कु-विचार घास-फूस और कचरा है । ढेर सारे कचरे और घास-फूस को अग्नि की एक चिनगारी भस्म कर सकती है, वैसे ही ज्ञान की एक छोटीसी चिनगारी कुविचारों के ढेर को क्षण भर में जला डालती है ।
[] संत का वचन उसके अन्तर हृदय से निकलता है, इसलिए दूसरों के हृदय को 'तुरन्त प्रभावित कर लेता है। हृदय से निकली वाणी हृदय को पकड़ लेती है ।
स्वाध्याय और ध्यान करते समय उसी प्रकार तदाकार हो जाना चाहिए जैसे चित्रकार चित्र बनाते समय स्वयं के मस्तिष्क को पहले उस चित्र की कल्पनाओं से पूरा रंग लेता है और कवि काव्य करते समय पहले उस विषय की भावनाओं में तन्मय हो जाता है । वैसे ही साधक को ध्यान करते समय ध्येय में तल्लीन और तन्मय हो जाना चाहिए तभी ध्यान में आनन्द की अनुभूति हो सकती है ।
[] एक समय में मन को एक ही केन्द्र पर रखना - तदाकारता है । एक ही क्रिया में शक्ति को केन्द्रित कर देने से शक्ति निखर जाती है, एकाग्रता दृढ़ हो जाती है ।
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[] कर्ज के सागर में जो डूब गया उसका निस्तार हो पाना कठिन है । एक आचार्य ने कहा है— ऋण, व्रण, रोग और अग्नि बढ़ने शुरू होने के बाद रुक पाना कठिन है ।
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