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मे रे प्रणा म हैं ...!
0तिलकधर शास्त्री [सम्पादक-आत्मरश्मि ]
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समय का यह महानद, बहता है अविरत, ॐचे विशाल हैं इसके अगम्य तट गिरते ही रहते हैं लहरियों से कट - कट ।
देखा है मैंने एक ऐसा ही महामानव जन्म-तट से कूद पड़ा संयम के पोत पर जाकर हुआ खड़ा आश्चर्य है कितना बड़ा !
इधर है जन्म तट उधर है मृत्यु-तट दोनों के मध्य है अतिविशाल अनसूझा अबुझा-सा अन्तराल ।
सब बहते हैं इस तट से उस तट की ओर, खींचती हैं उन्हें मानो झकझोर अदृष्ट अज्ञात डोर ।
संयम के सहारे वह आनन्द के सिंधु में डूब-डूब उतराया है ऋषित्व के पावनतम रत्न वह लाया है। उसका आनन्द हुआ ऋषित्व में ही विलीन, उसका ऋषित्व हुआ आनन्द में ही संलीन बन कर आनन्दऋषि आचार्य पद पाया है।
सब चिल्लाते हैं बहते ही जाते हैं हो विवश मजबूर जाते हैं दूर - दूर धकेलता है उन्हें सदा चण्ड शूर कर्मकर।
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होते हैं कर्मजयी ऐसे भी महामानव जो इसी तट पर ही रहते हैं, इसके प्रवाह में कभी नहीं बहते हैं।
पचहत्तर बसन्तों में श्रेष्ठ बने सन्तों में उत्तम ज्ञानवन्तों में महतोमहीयान् बने श्रीमन्तों में विनयशील, ज्ञान के अक्षय भण्डार है चारित्र-सम्पदा के रूप साकार हैं। ज्ञान के महा रूप दर्शन के समग्र रूप पुर्ण निष्काम हैं जिनके मंगल पाद-पद्म अति अभिराम हैं उन्हीं मंगल चरणों में मेरे प्रणाम हैं, शत-शत प्रणाम हैं।
नद एवं तटों के बन्धनों को तोड़ - तोड़, जीवन की दिशा को मोक्ष की ओर मोड़ अमर पद पाते हैं।
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امي مي مانحرمين
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