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जारों-हजार अपार श्रद्धालु भी होता है के साथ उ
अद्भुत प्रभावशाली वक्तृत्त्व-कला हजारों-हजार श्रोताओं का हृदय क्षण मात्र में आन्दोलित परिवर्तित कर सकती है तो उनकी ध्यान-मौन साधना युक्त एक विरल संकेत अपार श्रद्धालु वर्ग को सर्वस्व न्योछावर करने को आतुर भी कर सकता है । उनमें एक साथ अनेक विरोधी गुण देखकर आश्चर्य भी होता है। विनम्रता के साथ सिद्धान्तनिष्ठा और आचारदृढता, मधुरता के साथ अनुशासन की कठोरता, सरलता और कोमलता के साथ उत्कट तपःसाधना, जपयोग एवं ध्यानयोग की अन्तःस्रावित अमृतसाधना, वास्तव में ही बड़ी विचित्र, आश्चर्यजनक तथा मन को सहसा प्रभावित करती है।
. योगी अन्तरज्ञानी तो होते हैं किन्तु शास्त्रज्ञानी होना एक विरलता है। साधक कठोर आत्म-निग्रही तो होते हैं, पर कुशल प्रशासक होना एक दुर्लभ विशेषता है। तपस्वी तथा ध्यानी वचन-सिद्ध तो होते हैं, पर कलम-सिद्ध होना एक अद्भुतता है । उपाध्यायश्री जी महाराज एक ओर जहां जगत प्रपंच से विरत निस्पृह श्रमण हैं तो दूसरी ओर ललित काव्य-कला के सर्जक कवि व लेखक भी हैं। इस प्रकार की विलक्षणताएँ इस इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व को जहाँ आकर्षण केन्द्र बनाती है, वहाँ श्रद्धा-भाजन भी। इसी श्रद्धा, भक्ति व अन्तर के आकर्षण ने हमें विवश कर दिया, अन्तःस्फूर्त श्रद्धा की व्यंजना करने । अभिनन्दन का आयोजन उसी श्रद्धाभिव्यंजना की फलश्रुति है।
गुरुदेव श्री का श्रद्धालु वर्ग भारत के सभी प्रान्तों में, सभी वर्गों में और कहना चाहिए सभी धर्मों के अनुयायियों में परिव्याप्त है। केवल जैन, मारवाड़ी या गुजराती ही उनके भक्त हों वैसी बात नहीं है, हजारों अजैन सैकड़ों मराठी, तामिल, तेलगु, कन्नड भाषी, पंजाबी और बंगाली भी उनके प्रति अत्यन्त भक्ति-विभोर हैं। न केवल व्यापारी वर्ग, किन्तु अनेक उच्च राज्याधिकारी बौद्धिक वर्ग, प्राध्यापक, लेखक, प्राचार्य, प्रवक्ता भी उनके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते हैं। उनकी साधना की उपलब्धियों से चमत्कृत हैं, विनत हैं। उन सब की श्रद्धा का समवेत आग्रह था कि इस योगनिष्ठ सन्त श्रमण का सार्वजनिक अभिनन्दन होना चाहिए। उनके अभिनन्दन से हमारी श्रद्धा कृतकृत्य होगी, साहित्य-समृद्ध होगा और मानवता धन्य होगी। बस इसी भक्ति पूर्ण आग्रह ने अभिनन्दन समारोह मनाने का निर्णय लिया और अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन की योजना मूर्त बनी।
अभिनन्दन ग्रन्थ की परिकल्पना करते समय अनेक प्रबुद्धचिन्तकों के साथ दीर्घ विचार चर्चाएं चलीं। प्रज्ञाचक्षु पण्डित प्रवर सुखलालजी संघवी, पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजयजी, पण्डित बेचरदास जी दोशी, प्रो. श्री दलसुख भाई मालवणिया, डा. एस. बारलिंगे डा. ए. डी. बत्तरा प्रतिभामूर्ति अगरचन्द जी नाहटा, डा. कमलचन्द सोगाणी, डा. प्रेमसुमन, डा. नेमीचन्द जैन, डा. गोकुलचन्द जैन, डा. टी. जी. कलघटगी आदि के साथ विचार-विनिमय हुआ । निष्कर्ष रूप में अभिनन्दन ग्रन्थ को केवल एक अभिनन्दन ग्रन्थ न बना कर तत्त्वज्ञान एवं योग विद्या का एक सन्दर्भ ग्रन्थ बनाने का निर्णय लिया गया।
ई. सन् १९७६ के जून-जुलाई में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति का गठन हुआ। भारतीय विद्या के अनेक मनीषी लेखकों, विचारकों द्वारा सम्पादक मण्डल के रूप में अपना सहयोग-सहकार देने का आश्वासन मिला । योग विद्या के विशेष शिक्षण प्राप्त डा. ए. डी. बत्तराजी ने सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ सहयोग किया। देश के मूर्धन्य लेखकों, विदेशी विचारकों व साधकों से सम्पर्क बढ़ा और लगभग बीस मास के प्रयत्नों के फलस्वरूप अभिनन्दन ग्रन्थ की विशाल सामग्री एकत्र हुई।
इस संकलित-एकत्रित सामग्री का चयन, सम्पादन आवश्यकतानुसार नवलेखन आदि सभी कार्यों में लगभग सात आठ महीने लग गये, इस तरह सवा दो वर्ष का समय ग्रन्थ की सामग्री की पूर्णता में लगा।
चक्रवर्ती सम्राट की नौ निधियाँ होती हैं चारित्र चक्रवर्ती श्रद्धेय सद्गुरुवर्य का प्रस्तुत ग्रन्थ भी नौ खण्डों में विभक्त है । नौ निधियों की तरह अक्षय विचार सामग्री लिये हुए हो, यह मेरे अन्तर्मानस में विचार उद्भूत हुआ । उसी दृष्टि से ग्रन्थ के खण्डों का विभाजन किया गया। प्रथम खण्ड में श्रद्धार्चन के साथ ही आशीर्वचन, वन्दना-अभिनन्दना और समर्पण है। द्वितीय खण्ड में जीवन की सहस्रधारा को शब्दों में बाँधने का लघु प्रयास किया गया है। तृतीय खण्ड में सद्गुरुदेव के बहुआयामी साहित्य पर समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। उनके विराट् साहित्य का संक्षेप में परिचय भी दिया है । इस प्रकार ग्रन्थ के तीन खण्ड गुरुदेव श्री के तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व से सम्बन्धित है । चतुर्थ खण्ड में जैन दर्शन के निगूढ रहस्यों का उद्घाटन करने वाले अनेक चिन्तनपूर्ण निबन्धों का संकलन है । दर्शन जैसे गम्भीर विषय को सरल व सरस शब्दों की फ्रेम में मँढकर रखा गया है। पांचवें खण्ड में जैन साधना और मनोविज्ञान पर विश्लेषण प्रस्तुत करने वाली मौलिक सामग्री है। छठे खण्ड में जैन साहित्य, जो अत्यधिक विराट् व विशाल रहा है, प्रान्तवाद, भाषावाद और सम्प्रदायवाद से मुक्त रहा है, उसके विविध स्रोतों का संक्षिप्त किन्तु प्रामाणिक परिचय प्रदान किया गया है। सातवें खण्ड में जैनसंस्कृति पर गंभीर चिन्तन प्रस्तुत किया है। आठवें खण्ड में जैन
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