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परम्परा के उज्ज्वल इतिहास के सुनहरे पृष्ठ खुलते-से नजर आयेंगे । भगवान ऋषभदेव से लेकर वर्तमान युग तक का संक्षिप्त चित्रण है और नौवें खण्ड में योग से सम्बन्धित विराट् सामग्री प्रदान की गई है। ग्रन्थ की सामग्री के सम्बन्ध में मैं यहां पर विशेष कुछ भी नहीं कहूँगा, विषय सूची स्वयं ही अपनी विराट्ता तथा विविधता प्रदर्शित कर रही है। तथापि इतना अवश्य कहूंगा कि अब तक जितने भी अभिनन्दनग्रन्थ-स्मृतिग्रन्थ मेरे ध्यान में आये हैं, उनसे अधिक उच्च कोटि की पाठ्य सामग्री, विचार सामग्री और नवीन विषयों की प्रायोगिक ज्ञान-सामग्री इस ग्रन्थ में उपलब्ध होगी। योग विद्या जैसे गंभीर और प्रायोगिक विषय पर ही लगभग ३०० पृष्ठ की सामग्री इस ग्रन्थ में है, जिसमें अनेक उच्चकोटि के अनुभवी माधकों के स्वयं अनुभूत प्रयोग व विचार है। ये विचार कीमती हीरों से भी अधिक मूल्यवान व उपयोगी है । इस प्रकार यह अभिनन्दन ग्रन्थ जितना विशालकाय बना है उससे भी अधिक ज्ञानवर्धक, उपयोगी, जीवन मूल्यों का उद्घाटक और पठनीय बना है। इसकी विशाल काया देखकर प्रबुद्ध पाठक इसे मात्र पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने लायक न समझें, पर एक बार अध्ययन करें। विषय सूची को पढ़ने पर ही उन्हें स्वतः पढ़ने की रुचि जागृत होगी और वे उत्साहित होंगे । मैं आत्म-विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि यह ग्रन्थ रत्नाकर है। इसमें बहुमूल्य विचारों की मणि-मुक्ताएँ है, पाठक इसमें गहराई से गोता लगाए और उन मुक्ताओं को पाकर अपने आपको धन्य बनाये।
इस विशालकाय ग्रन्थ के सम्पादन में श्रद्धेय गुरुदेव श्री की असीम कृपा, उनकी अध्यात्मशक्ति हमारा सम्बल रही है जिसके कारण मैं इस महान कार्य को सम्पन्न कर सका हूँ। डा० ए० डी० बत्तरा का पूर्ण हार्दिक सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है । उन्होंने ग्रन्थ को उत्कृष्ट बनाने के लिए अपूर्व श्रम किया है। उनके स्नेह-स्निग्ध श्रम को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है और साथ ही विद्वान सम्पादक मण्डल ने भी अपने मौलिक लेख भिजवा कर मेरे उत्साह में अभिवृद्धि की है । स्नेहमूर्ति प्रो० दलसुख भाई मालवणिया और डा. एस. एम. बारलिंगे का पथ-प्रदर्शन मेरे लिए बहुत मूल्यवान सिद्ध हुआ है। मैं उन सभी विज्ञों का किन शब्दों में आभार व्यक्त करू? उनका हार्दिक स्नेह सतत स्मृति पटल पर चमकता रहेगा। ग्रन्थ को आधुनिक साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत करने का श्रेय विज्ञवर श्री श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' को है । वे सम्पादन एवं मुद्रणकला-मर्मज्ञ हैं । उन्होंने अत्यन्त श्रद्धा के साथ ग्रन्थ की सामग्री को व्यवस्थित किया है और मुद्रण कला की दृष्टि से सजाया है, संवारा है।
परामर्शक मण्डल के सभी परमादरणीय आचार्य प्रवर, उपाध्याय मण्डल, प्रवर्तक श्री जी आदि का मुझे आशीर्वचन प्राप्त हुआ। संप्रेरक सन्त सातियों की सतत प्रेरणा भी मुझे प्राप्त होती रही, जिसके कारण मेरे मन में उत्साह बना रहा । श्री रमेश मुनि जी श्री राजेन्द्र मुनि जी, श्री दिनेश मुनि जी की सतत सेवा के कारण ग्रन्थ का सम्पादन कार्य सुगम रीति से हो सका है।
परम गुरुभक्त दानमल जी पुनमिया, श्री जसराज जी बोरा, श्री पारसमल जी मुथा, मांगीलाल जी सोलंकी, चुन्नीलाल जी धर्मावत प्रभृति का सहयोग भी सदा स्मरणीय रहेगा।
मैं आत्म-विश्वासपूर्वक पाठकों को आह्वान करने के पूर्व गुरुदेव श्री के प्रति अपनी श्रद्धा-स्निग्ध विनम्र विज्ञप्ति करता हूँ कि वे हर पाठक को आशीर्वाद दें कि उनके लिए ग्रन्थ का हर खण्ड और प्रत्येक खण्ड का हर पृष्ठ ज्ञान की नव ज्योति प्रज्ज्वलित करने वाला सिद्ध हो। उनका जीवन, साधना की निर्मल ज्योति से जगमगा उठे। साथ ही मुझे भी आशीर्वाद प्रदान करें कि मैं ज्ञान-साधना में, ध्यान-साधना में, साहित्य-साधना में निरन्तर बढता रहूँ। कृतकार्य बनू । इसी आशा व विश्वास के साथ
जैन स्थानक, हैदराबाद अक्षय तृतीया
-देवेन्द्र मुनि
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