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सम्पादकीय
महाबली काल का अनन्त प्रवाह गंगा की विराट् धारा की तरह सतत बहता रहता है। इस महाप्रवाह में कौन स्थिर रह पाया है। अनन्तकालीन अपार अस्थिरता के बीच जो स्थिर रहता है, अपना अस्तित्व बनाये रहता है वह सद्धर्म है। 'अस्थि एगं धुवं ठाणं"-एक ध्रव स्थान है। एक शाश्वत तत्त्व है, प्रवहमान जगत में अप्रवाहशील एक शक्ति है और वह है धर्म ! एतदर्थ ही यह जीवमात्र का आश्रय है, शरण है, आधार है। "धर्मः धारयते प्रजा" धर्म प्राणी मात्र को धारण करने में समर्थ है।
धर्म का रूप क्या है ? उसका आकार क्या है ? धर्म अरूप है, निराकार है, फिर उसे कैसे समझे ? कैसे पहचाने ? इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप धर्म ने सन्त का रूप धारण किया है ? 'सन्त' धर्म का मूर्तिमान रूप है-सन्तो हि मतिमान् धर्मः" । सन्त धर्म के व्याख्याकार ही नहीं, स्वयं एक व्याख्या है। सन्त का जीवन, धर्म का जीता-जागता स्वरूप है। इसीलिए धर्म-प्राण भारतीय संस्कृति का 'शीर्ष पुरुष' सन्त है, । सन्त के चरणों का प्रवाह जिधर मुड़ जाता है, वहाँ का जन-जीवन धर्म से सरस बन जाता है। मानवता की हरियाली लहलहाने लगती हैं। साधना पुलक-पुलक उठती है।
सन्त एक व्यक्ति नहीं, धर्म का, सदाचार का, सत्य-अहिंसा, विश्व-प्रेम और विश्व-मानवता का एक पावन प्रतिष्ठान है। अति-निगूढ मानवीय शक्तियों का उद्घाटक सन्त है । इसलिए हमारा आदर्श है सन्त ! आराध्य है सन्त ! वन्दनीय एवं अभिनन्दनीय है सन्त !
सूर्य का धर्म है प्रकाश देना । कण-कण को जीवनी-ऊष्मा प्रदान करना । जल का धर्म है-जीव मात्र को शीतलता से अनुप्रीणित करना । धरती का धर्म है धारण करना और आकाश का धर्म है-आश्रय देना । इसी प्रकार सन्त का धर्म है, जीव मात्र को उसके स्वरूप का बोध कराना, अनन्त सुप्त शक्तियों के जागरण का रहस्य समझाना। आत्मा को परमात्मा, जीव को शिव के स्वरूप में प्रतिष्ठित होने का मार्ग दिखाना ।
जिस प्रकार सूर्य प्रकाश के बदले में प्रशंसा नहीं चाहता, धरती अनन्त जीवों को आश्रय प्रदान करके भी आभार-वचनों की कांक्षा नहीं रखती, चन्द्र,गगन, जल, पादप आदि प्राकृतिक विभूतियां उपकार के बदले में आभार जताने की अपेक्षा नहीं करते, पर कृतज्ञ मानव प्राचीन काल से ही सूर्य को बन्दन करते आया है, धरती, जल, आकाश आदि की स्तुतियां रचता रहा है, उपकारी के प्रति वन्दना, अभिनन्दना करके अन्तःकरण के असीम प्रमोद और उल्लास को अभिव्यक्ति देता रहा है। इसी प्रकार सन्त के असीम, अनन्त उपकारों के प्रति भी मानव की विनम्रता और कृतज्ञता सदा सजग और सचेतन रही है।
सन्त भले ही 'समो जिंदा-पसंसासु समो माणावमाणओ' निन्दा-प्रशंसा, मान और अपमान में समभाव रखे 'णिरवेक्खे निर्पेक्ष और णिकांखें-कांक्षा मुक्त रहे। पर,हमारी कृतज्ञता को, हमारी विनम्रता को, अन्तःकरण की सद्वृत्तियों को यह कहाँ स्वीकार है कि अपने उपकारी के प्रति वाणी और विचार मूक बने रहें ? अन्तःकरण में प्रमोद भावना का, वात्सल्य और स्नेह का उमड़ता स्रोत हलचल न मचाये यह कैसे संभव है ? मनुष्य के अन्तर का अनुराग, अन्तर की विनम्रता, कृतज्ञता, वत्सलता, और सद्भावनाएँ जब जगती हैं तो विचारों के हजार-हजार पंख निकल आते हैं, वाणी के हजार-हजार स्रोत फूट पड़ते हैं । सहस्र धारा वाचा बन जाती है।
इस भूमिका के साथ अब मैं यह कहना चाहूँगा कि प्रस्तुत अभिनन्दन उपक्रम, समाज और राष्ट्र के विनम्र एवं कृतज्ञतापूर्ण विचार तथा वाणी की एक सहज व्यंजना है। भावना कली का सहज प्रस्फुटन है। इसलिए इसमें कृत्रिमता नहीं, सहजता है, प्रदर्शन नहीं अन्तःस्फूर्त भावना है। इसमें भार-मुक्ति की नहीं, आभार अभिव्यक्ति की साधना है।
अध्यात्मयोगी राजस्थानकेसरी उपाध्याय श्रद्धेय सद्गुरुवर्य श्री पुष्कर मुनि जी महाराज का ब्यक्तित्व फूलों के गुलदस्ते की भाँति विभिन्न गुणों की सौरभ से सुरभित है। वे एक ओर उच्चकोटि के विद्वान है तो दूसरी ओर पहुँचे हुए साधक भी हैं। ज्ञान की गरिमा और साधना की महिमा से व्यक्तित्व के दोनों छोर कसे हुए-से हैं। उनकी
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