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अतीत को कुछ स्थानकवासी आर्याएँ
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शनिवार के दिन ढाई महीने का संथारा पूर्ण कर स्वर्गवासी हुए। 'मनसुख काला' उन्हें बारंबार वंदन करता है। सं० १८६३ आश्विन शुक्ला १० को चन्द्रवार के दिन कवि मनसाराम ने यह रचना की। [ऐतिहासिक काव्य संग्रह पृ० २०५ में प्रकाशित
७. सती मूलांजी सं १७८६ में मूल नक्षत्र में आपने जन्म लिया । आपके पिता सरूपचन्द जी और माता का नाम फूलांजी था । आर्या अनोपांजी के फतैपुर पधारने पर आपने चार महीने सेवा की। दीक्षा का भाव हुआ, प्रतिक्रमण सीख कर दीक्षा की बात की। मन में चिंता हुई कि मेरा बड़ा भाई विदेश में है, ससुराल वाले मिथ्यात्वी हैं। मूलांजी की इस चिता में अन्न खाने पर भी अरुचि हुई देकखर छोटे भाई ने आज्ञा दे दी । सं १८१० के मृगसर बदि २ के दिन दीक्षा ग्रहण थी। अनेकों व्रत पच्चखाण किये । दीक्षा के अनंतर विहार कर ५ वर्ष देश में रहे । फिर बीकानेर चौमासा किया। जयपुर, कोटा, शेरगढ़ में विचरे । कोटा चौमासा में विषम ज्वर की व्याधि हुई परन्तु तपस्या के प्रभाव से ज्वर दुर हुआ । फागी आये, तिवाडी की आज्ञा न होने से किशनगढ़ चातुर्मास किया। इस प्रकार आठ चौमासे उग्र विहार करते बीते । सं० १८१६ में बीकानेर पधार कर हरजी कमलजी के दर्शन किए । सं० १८२० में नाथूरामजी का चौमासा हआ। सती मूलांजी ने करबद्ध होकर तपचर्या करने की भावना व्यक्त की। गुर्वाज्ञा से बेले-बेले पारणा, फिर तेले पारणे, इस प्रकार संग्राम में उतर कर कर्म खपाने के लिए पाँच-पाँच उपवास और चार विगय का त्याग किया। जब शरीर क्षीण हो गया तो संथारा लेकर बीकानेर में आश्विन सुदि ११ को तिविहार के पच्चक्खाण किए। सत्रह दिन तिविहार और सात प्रहर चौविहार संथारा पूर्ण कर कार्तिक बदि १२ के पिछले प्रहर स्वर्गवासी हुए ! बसत (संभवत: नीचेवाली घटना) कवि ने स० १८२१ कार्तिक सुदी १४ को इस ३७ गाथा की सज्झाय बनाई [ऐ० का० सं० पृ० २०३]
८. सती वसन्तोजी सांथा गाँव के ब्राह्मण टोडरमल की पत्नी विरजावती की कोख में वसंतोजी ने जन्म लिया। गरुणीजी के पास दीक्षा लेकर ग्राम नगर में विचरण करते हुए आगरा नगर पधारे। सती बसन्तोजी ने बहुत तपस्या की। सं० १८८६ मिति श्रावण सुदि रविवार के दिन कर्मों का क्षय करने के लिए अनशन कर दिया। श्री सीमंधर स्वामी को वन्दनापूर्वक पूज्य श्री वैणसुख जी के मुंह से संभार ‘पयन्नाशास्त्र सुना। सती बसन्तो जी ने भावपूर्वक भाद्र शुक्ल २ सोमवार को तृतीय प्रहर में लाभ के चौघडिये में देह त्याग की। सती ने अपने माता पिता और कुल को उज्ज्वल कर स्वर्गवास किया । कवि आसकरण ने २६ गाथा की सज्झाय में सती के गुण गाए । [ऐ० का० सं० पृ० २११]
९. महासती चतरुजी नगर गाँव में संगी सरूपचन्द के यहाँ सती चतरुजी ने जन्म लिया । बाल्यकाल से गुरुओं के समागम से धार्मिक संस्कार थे। महासती अमरुजी महाराज के पास दीक्षा लेकर शास्त्राभ्यास किया। आपने देश विदेश में विचर कर बहुतों का उपकार किया। शारीरिक शक्ति घट जाने से गढ़ में स्थिर ठाणा विराजे । उपवास, छट्ठ, अष्टम बहुत किए । आठों प्रहर स्वाध्याय ध्यान में रत रहते । कार्तिक बदि १० के दिन आपने तीनों आहार का त्याग रात्रि के पिछले प्रहर में मन ही मन किया। चनणाजी महाराज ने कहा अभी धैर्य रखें, शीघ्रता न करें। चतरुजी ने कहा--पूज्य महाराज नहीं फरमावेंगे तो चौहिवार कर दूंगी। चतुर्विध संघ एकत्र हुआ। कूचामन से अमेदमलजी महाराज पधारे, गुरु बहिनों और जनाजी, झमीजी, शिष्याओं ने बड़ी सेवा की। श्राविकाओं ने छट्ठ, अट्ठम किए, रतनाबाई ने तो संथारा पर्यन्त तिविहार पच्चक्खाण किया। मिती मिगसर सुदि १२ के दिन अनशनपूर्वक संथारा पूर्ण हुआ। ५३ वर्ष की आयु पाई। ३४ वर्ष संयम पालन किया । हरखबाई ने २१ गाथा में यह सज्झाय रची। [ऐ० का० सं० पृ० २१४]
१०. सती गोरांजी सरस्वती को नमस्कार कर गुरुणीजी के गुण गाते कवि कहता है कि लाहोर के खत्री कुल में सती गोरांजी ने जन्म लिया। यौवन वय में वैराग्य वासित होकर उन्होंने जन्म सफल किया। गुरु श्री लालचन्दजी शहर जहानाबाद पधारे । गुरुवाणी सुनकर नश्वर संसार की अस्थिरता ज्ञात कर दीक्षा लेना निश्चय किया। उन्हें आणंदांजी जैसी गुरुणी मिली, गुरु वचनों से संयम पथ की ओर बढ़ी। [अपूर्ण पत्र]
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