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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
४ सती मयाकुंवरजी
सती मयाकुंवरजी ने सामगढ़ के ओसवाल जीवराजजी की पत्नी उत्तम सती के कोख से जन्म लिया । सं० १८१४ में आर्या सुखांजी सामगढ़ पधारे। उनके उपदेश से आपने चौदह वर्ष की अवस्था में दीक्षा ले ली। श्री पूज्य मनजी और नाथूरामजी जैसे गुरु मिले, उसके कार्य सिद्ध हुए । आर्या रूपांजी और सुखांजी मिलीं। दादा गुरुणी के दर्शनों की उत्कण्ठा थी । सं० १८१५ का चातुर्मास बूंदी किया । आंखों की नजर घट गई । चातुर्मास के बाद बिहार कर कोटा रामपुरा आये । सुखांजी महाराज से समता भाव पूर्वक तपश्चर्या करने के भाव व्यक्त किये। सुखांजी ने कहा –धौर्य रखो, अवसर आने पर तपस्या करना । मयाकुंवरजी ने कहा- मेरे चढ़ते परिणाम हैं। एक महीने तक बेले बेले पारणा किया। जब उन्होंने दीपचन्दजी का संथारा सुना तो तपस्या का रंग चढ़ा और पंचोले- पंचोले पारणा करते हुए ध्यान में लवलीन होकर बैठे रहते, सूत्र की स्वाध्याय करते । तैंतीस पंचोले करने के पश्चात दही, बूरा, मिश्री के अतिरिक्त चार विगय का त्याग कर दिया। पंचेंद्रिय दमन करते हुए संयम साधना में दिन में बैठे ही रहते।
साढ़े बारह महीने में ६१ पंचोले हुए । देह की शक्ति घटी । गुरुणी सुखांजी तथा गुरु बनि अजवांजी, खेमजी, मीठुजी ने पूर्ण सहायता व सेवा की। सं० १८१७ मार्गशीषं सुदि ७ के दिन स्वयं संथारा कर दिया। कोटारामपुरा में चतुविध संघ इकट्ठा हुआ । मयाजी का संथारा सुन श्री पूज्यजी ने जीवराजजी रामचन्द्रजी के साधु को विहार कराया। संथारे पर लक्ष्मीचन्दजी पधार गए। रामचन्द्रजी सूत्र ब्याख्यान करते । आगरा से साह भोलानाथजी ने आकर सेवा की । भावा खुशालचन्दजी ने भी सेवा बजाई । ५५ दिन तीविहार में और १३ प्रहर चौविहार अनसन संथारा गुरु रामचन्द्रजी के मुख से सिद्ध हुआ । मिती माघ सुदि ३ के दिन सूर्योदय के समय स्वर्ग गति प्राप्त की । श्रावक साह मल ने यह ४१ गाथा महासती मयाकुंवरजी की सज्झाय रची। सं० १८१७ में कोटा रामपुरा में श्री पूजजी मनजी की शिष्या जेठाजी शिष्या रूपाजी शिष्या सुखांजी की शिष्या मयाकुंवरजी की सज्झाय लिखी । ५ सती पेमाजी
पेमाजी सतियों में सरदार थी। काया की शक्ति घट गई, वेदना बढ़ी। साधु सुन्दरजी को बुलाया। हाथ ऊँचाकर संथारा का पच्चक्खाण किया । मिती आषाढ़ बढ़ी १२ को संथारा किया। मुहणोतों का यश फैला । क्षमत क्षामणा करते हुए पौने चार प्रहर का संथारा आया । सं० १७६१ में बाई नगरि ने यह ४० गाथा की सज्झाय पूर्ण की। [दूसरा पत्र गा-२४ से है आदि विहीन )
६ सतो मयाजी
ढूंढाड देश में दुधु नगर है जहाँ मयाजी ने अवतार लिया। आपके पिता सुखरामजी और माता वीरादेजी थी । वयस्क होने पर आपकी सगाई की। विवाहित हो साबडदा आये। कितने ही काल सांसारिक सुख भोगा । फिर पति का वियोग होने से संसार की अस्थिरता भासित हुई । सती संभाजी के उपदेश से दीक्षा की भावना हुई और गोपीपर में जाकर दीक्षा ली, रंभाजी के पास शास्त्राभ्यास किया । [दोहे ६ ]
आगे ५२ गाथा की ढाल में अरिहंत गणधर भगवान को व पूज्य नाथूरामजी को नमस्कार कर मयाजी का गुण वर्णन किया है। पूज्य नथमलजी स्वामी भोजराजजी पट्टधर हैं और विद्वान व्याख्यानदाता और संयमी हैं । दुधू नगर में राजा जीवसंह के राज्य में प्रजा सुख से निवास करती है । वहाँ मयाजी ने सुखरामजी की भार्या वीरां दे की कोख से जन्म लिया। भाई भौजाई भतीजे परिवार पूरा था। कितने ही वर्ष सांसारिक सुख भोगकर रंभाजी के पास दीक्षित हुए । स्वाध्याय ध्यान में लवलीन रहते तीन लाख ग्रन्थ ( परिमाण शास्त्र) लिखे ।
सती मयाजी ने खूब तपस्या की, उपवास, बेलों तेलों की गिनती नहीं सतरह अठाइयाँ कीं। शुद्ध चारित्र पालते हुए बत्तीस वर्ष बिताए। अपनी आयु शेष जानकर पुस्तक पात्रों से मोह हटाकर सती मगनाजी को सौंप दिए । आलोयणा पूर्वक निःशल्य होकर श्रावण बदि ६ मंगलवार को तिविहार संथारा कर दिया। सती ने पूज्य भोजराज जी की विनयपूर्वक बड़ी सेवा की। स्वामी गोरधन जी जोबनेर में चातुर्मास स्थित थे। सती मयाजी का संथारा सुनकर दूधावती पधारे । सती मयाजी ने मगनाजी, लिछमाजी को पास बुलाकर पूज्यजी की आज्ञा में रहते शिक्षा मानने का निर्देश किया। इन दोनों शिष्याओं ने गुरुणी की बड़ी सेवा की। गाँव के श्रावक आये। लोगों ने शीलव्रत, रात्रि भोजन
त्याग, कंदमूल त्याग एवं व्रत उपवासादि अनेक प्रकार के त्याग प्रत्याख्यान किये। सं० १८६३ मिती आसोज सुदी ७
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