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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रत्य: अष्टम खण्ड
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११. गीगां सती - इनका एक विहार पत्र हमारे संग्रह में है जिससे मालूम होता है कि उन्होंने सं० १८३० वैशाख बदी ५ को जोधपुर में पूज्य श्री जयमलजी और रायचन्दजी के पास दीक्षा ली थी। इनकी गुरुणी लाछांजी थीं। इनके चौमासे इस प्रकार हुए-सं० १८३० जोधपुर, १८३१ पाली, १८३२ नागोर, १८३३ मेडता, १८३४ नागोर, १८३५ तीवरी, १८३६......", १८३७ रीयां, १८३८.......", १८३६ गगडाण, १८४० डेह, १८४१ जोधपुर, १८४२ रीयां, १८४३ पीपाड, १८४४ जोधपुर, १८४५ जोधपुर, १८४६ पाली, १८४७ पीपाड, १८४८ नागोर, १८४६ मेडता, १८५० जोधपुर, १८५१ बीकानेर, १८५२ पीपाड, १८५३ जोधपुर, १८५४ सैर (नागोर), १८५५ सैर (नागोर), १८५६ जोधपुर, १८५७ पाली, १८५८ मेडता में ठाणा ५ से चातुर्मास किया। इन चातुर्मासों में अन्य दीक्षाओं का व कितने ठाणों से चातुर्मास हुआ वह भी उल्लेख है । १२. डाही सती
इनके सम्बन्ध में बाई रेखादे से नागबाई ने "डाही सती भास' लिखी है जिसका सार आगे दिया जा रहा है
डाही सती की भास २१ गाथाओं में बाई रेखादे की वीनती से नागबाई ने रची है। सर्वप्रथम आदिनाथ और गणधर-सरस्वती को प्रणाम कर डाहीजी सती के गुणगान का उपक्रम किया है। सं० १६५० फाल्गुन शुक्ला ११ गुरुवार के दिन इस महासती का जन्म मरुधर देश के आडवा गाँव में हुआ था। आपके पिता लुंकड गोत्रीय पेथड-सा के पुत्र हंसराज थे जिनकी धर्मपत्नी हर्षमदे शील में सीता जैसी थी, वह आपकी जन्मदात्री थी।
डाहीजी, साह भोजा के यहां छाछलदे सती की कुलवधू थी अर्थात् उनके पुत्र के साथ विवाहित थी जिसका नाम इस भास में नहीं है । चरित्र नायिका ने अपने विनय गुण से उभय पक्ष की शोभा बढ़ाई । ज्ञान वैराग्य की प्रबलता से संयम ग्रहण करने के लिए सारे कुटुम्ब की अनुमति पाकर सं० १६७२ माघ सुदी ७ के दिन पूज्य श्री जसवन्तजी के कर-कमलों से दीक्षित हुई। आपको सती मनकीजी की शिष्या घोषित की गई। आप गुणवान थी, शिष्य परिवार बढ़ा । डाहीजी ने ४२ वर्ष पर्यन्त सिंह की भाँति संयम पालन किया, आपकी ज्ञानवान शिष्याओं ने अच्छी सेवा की।
___आर्या ढाहीजी के संथारे का अवसर ज्ञात कर श्री पूज्यजी के दीप्तिवान् शिष्य सहसकर्ण वन्दना कराने के लिए निवली नगर पधारे। संघ से परामर्श कर सतीजी का उत्साह देखकर सं० १७१३ ज्येष्ठ सुदी १५ को संथारा कराया, तीन प्रहर का तिविहार और फिर चार प्रहर का चौविहार प्रतिपक्ष सोमवार को प्रातःकाल संथारा सिद्ध हुआ। साह केशव, जीवजी, रासिंघ ने प्रचुर द्रव्य व्यय कर उत्सव-महोत्सव किए। श्री पूज्य धनराजजी के शासन में श्रावण शुक्ल गुरुवार के दिन जीवदया प्रतिपाल श्रावकों की सेवा प्रशस्त थी, उस समय बाई रेखादे की विनती से नागबाई ने यह भास जोड़ कर बनाई।
GANA
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