________________
१२६
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड
.........
...............................................
...+-
-
J
A80
k0
धन्नामुनि-मुनिजी ! सत्य बात कहने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए। मैं साधिकार कह सकता हूँ कि पूज्य श्रीलालजी महाराज के सम्प्रदाय के अतिरिक्त कोई सच्चे व अच्छे साधु नहीं हैं।
महाराजश्री ने एक क्षण चिन्तन के पश्चात् कहा-आप जिस सम्प्रदाय की इतनी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा कर रहे हैं, उस सम्प्रदाय को अमुक दिन आप छोड़ देंगे और जिस तप के कारण आपको अहंकार आ रहा है उससे भी आप भ्रष्ट हो जायेंगे । तप अच्छा है, चारित्र श्रेष्ठ है, किन्तु तप और चारित्र का अहंकार पतन का कारण है ।
महाराजश्री इतना कहकर चल दिये। धन्ना मुनि व्यंग्य भरी हँसी हँसते हुए अपने स्थान पर चले आये और जिस दिन के लिए महाराजश्री ने भविष्यवाणी की थी, उसी दिन उन्होंने सम्प्रदाय का परित्याग कर दिया और तप आदि को छोड़कर विषय-वासना के गुलाम बन गये।
इसी तरह आचार्यश्री श्रीलालजी महाराज के शिष्य घेवर मुनि थे। उन्हें अपने ज्ञान तथा सम्प्रदाय का मयंकर अभिमान था। वे एक बार रोहट गाँव में महाराजश्री से मिले। उन्होंने भी अहंकार से महाराजश्री का भयंकर अपमान किया । उन्हें यह अभिमान था कि सबसे बढ़कर मैं ज्ञानी हूँ और हमारा सम्प्रदाय साधुओं की दृष्टि से और श्रावकों की दृष्टि से समृद्ध है । महाराजश्री ने कहा-घेवर मुनिजी ! आप इतना अभिमान न करें। आप अपने आपको महान् ज्ञानी समझते हैं। यह बड़ी भूल है । गणधर, श्रुतकेवली और हजारों ज्योतिर्धर जैनाचार्य हुए हैं । उनके ज्ञान के सामने आपका ज्ञान कुछ भी नहीं है। सिन्धु में बिन्दु सदृश ज्ञान पर भी आपको इतना अहंकार है। यह सत्य ज्ञान की नहीं किन्तु अज्ञान की निशानी है । ज्ञानी वह है जिसमें अहंकार न होकर विनय हो। रहा सम्प्रदाय का प्रश्न ? मैं स्वयं मानता हूँ कि पूज्य श्रीलालजी महाराज क्रियानिष्ठ श्रेष्ठ सन्तों में से हैं। आपका सम्प्रदाय भी बड़ा है, किन्तु अहंकार करना योग्य नहीं है ।
घेवर मुनि ने अहंकार की भाषा में ही कहा कि सत्य को छिपाना पाप है। किसी भी सम्प्रदाय में इतने ज्ञानी-ध्यानी व तपस्वी सन्त नहीं हैं। वस्तुतः श्रीलालजी महाराज का सम्प्रदाय ही एक उत्कृष्ट सम्प्रदाय है और तो सभी नामधारी व पाखण्डी साधु हैं।
महाराजश्री ने कहा-ऐसा कहना सर्वथा अनुचित है। आप जिस सम्प्रदाय की प्रशंसा करते हुए फूले जा रहे हैं अमुक दिन आप स्वयं इस सम्प्रदाय को छोड़ देंगे और मन्दिरमार्गी सन्त बन जायेंगे ।
वस्तुतः महाराजश्री ने जिस दिन के लिए उद्घोषणा की उसी दिन घेवर मुनि मंदिरमार्गी सन्त बन गये और वे ज्ञानसुन्दरजी नाम से विश्रुत हुए। उन्होंने स्थानकवासी सम्प्रदाय के विरोध में बहुत कुछ लिखा। वे जब मुझे पीपलिया और जोधपुर में मिले तब स्वयं उन्होंने मुझे यह घटना सुनायी कि तुम उस महापुरुष की शिष्य परम्परा में हो जो महापुरुष वचनसिद्ध थे। बड़े चमत्कारी थे।
समदडी में नवलमलजी भण्डारी आपश्री के परमभक्त थे। वे आपश्री को कहा करते थे कि गुरुदेव मुझे भी क्या संथारा आयगा? मेरी अन्तिम समय में संथारा करने की इच्छा है। वे पूर्ण स्वस्थ थे । सर्दी का समय था। घर पर वे बाजरी का पटोरिया पी रहे थे। आपश्री उनके वहाँ सहजरूप से भिक्षा के लिए पधारे । भण्डारी नवलमलजी ने खड़े होकर आपश्री को वन्दन किया। महाराजश्री ने उनकी ओर देखकर कहा-नवलमल, तू मुझे संथारे के लिए कहता था। अब बाजरी का पटोरिया पीना छोड़ और जावज्जीव का संथारा कर ले।
नवलमल जी ने कहा-गुरुदेव, मैं तो पूर्ण स्वस्थ हैं। इस समय संथारा कैसे ? महाराजश्री ने कहा यदि मेरे पर विश्वास है तो संथारा कर। नवलमलजी ने संथारा किया। सभी लोग आश्चर्यचकित थे। किन्तु किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि महाराजश्री के सामने कुछ कहते । तीन दिन तक संथारा चला और वे स्वर्गस्थ हो गये ।
एक बार जब महाराजश्री समदडी विराज रहे थे। उस समय एक युवक और युवती विवाह कर मांगलिक श्रवण करने के लिए आपके पास आये। महाराजश्री ने युवक को देखकर कहा-तुझे यावज्जीवन अब्रह्मसेव का त्याग करना है । युवक कुछ भी नहीं बोल सका । लोगों ने कहा-गुरुदेव, अभी तो यह विवाह कर आया ही है। यह कैसे नियम ले सकता है ? महाराजश्री ने कहा-मैं जो कह रहा हूँ। अन्त में महाराजश्री ने उसे पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन का नियम दिला दिया । सायंकाल चार पाँच बजे उसे अकस्मात् ही हृदयगति का दौरा हुआ और उसने सदा के लिए आँख मूंद लीं। तब लोगों को पता लगा कि महाराजश्री ने यह नियम क्यों दिलाया था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org