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अध्यात्मयोगी सन्तश्रेष्ठ ज्येष्ठमलजी महाराज
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मेरे प्राण ही संकट में पड़ जायेंगे। राजेन्द्रसूरि के आदेश को शिरोधार्य कर शिष्य वादनवाड़ी पहुंचे और महाराजश्री से क्षमाप्रार्थना की। महाराजश्री ने कहा कि इस प्रकार ज्ञानियों का अभिमान करना योग्य नहीं है । यदि उन्हें शास्त्रार्थ करना है तो मैं प्रस्तुत हूँ।
शिष्यों ने राजेन्द्रसूरिजी की ओर से क्षमायाचना की और कभी भी किसी सन्त का अपमान न करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण की। महाराजश्री ने कहा-सूरिजी ठीक हो चुके हैं। आप पुनः सहर्ष जा सकते हैं। शिष्यों ने ज्यों ही जाकर देखा त्यों ही सूरि जी की उलटी और दस्तें बन्द हो चुकी थीं और वे कुछ स्वस्थता का अनुभव कर रहे थे।
एक बार आपश्री जालोर विराज रहे थे। प्रवचन के पश्चात् आपश्री स्वयं भिक्षा के लिए जाते थे । ज्यों ही आप स्थानक से निकलते त्यों ही प्रतिदिन एक वकील, सामने मिलता जिसके मन में साम्प्रदायिक भावना के कारण आपके प्रति अत्यधिक घृणा की भावना थी। महाराजश्री ज्यों ही आगे निकलते त्यों ही वह अपने पैर के जते निकालकर अपशकुन के निवारणार्थ उसे पत्थर पर तीन बार प्रहार करता था। प्रतिदिन का यही क्रम था। एक दिन किसी सज्जन ने गुरुदेव को बताया कि यह प्रतिदिन इस प्रकार का कार्य करता है। - महाराजश्री ने उसे समझाने की दृष्टि से दूसरे दिन पीछे मुड़कर देखा तो वह पत्थर पर जूते का प्रहार कर रहा था। महाराजश्री ने मधुर मुसकान बिखेरते हुए कहा-वकील साहब, यह क्या कर रहे हैं ? आप जैसे समझदार बुद्धिमान व्यक्तियों को इस प्रकार सन्तों से नफरत करना उचित नहीं है। सन्त तो मंगल स्वरूप होते हैं। उनका दर्शन जीवन में आनन्द प्रदान करता है।
वकील साहब ने मुंह को मटकाते हुए कहा-आपके जैसों को हम सन्त थोड़े ही मानते हैं। ऐसे तो बहुत नामधारी साधु फिरते रहते हैं।
महाराजश्री ने कहा-आपका यह भ्रम है। सन्त किसी भी सम्प्रदाय में हो सकते हैं। किसी एक सम्प्रदाय का ही ठेका नहीं है। सन्तों का अपमान करना उचित नहीं है। एक सन्त का अपमान सभी सन्त-समाज का अपमान है । अतः आपको विवेक रखने की आवश्यकता है।
___ वकील साहब ने कहा-ऐसे तीन सौ छप्पन सन्त देखे हैं।
महाराजश्री ने कहा-यहाँ पत्थर पर जूते क्यों मारते हैं ? सिर पर ही जूते पड़ जायेंगे। यों कहकर महाराजश्री आगे बढ़ गये और वकील साहब कोर्ट में पहुंचे। वकील साहब के प्रति गलतफहमी हो जाने के कारण न्यायाधीश ने आज्ञा दी कि वकील साहब के सिर पर इक्कीस जूते लगाकर पूजा की जाय ।
वकील साहब अपनी सफाई पेश करना चाहते थे, पर कोई सुनवाई नहीं हुई और जूतों से उनकी पिटाई हो गयी।
उस दिन से वकील साहब किसी भी सन्त का अपमान करना भूल गये और वकील साहब महाराजश्री के परम भक्त बन गये । इसको कहते हैं 'चमत्कार को नमस्कार' ।
आचार्यप्रवर श्रीलालजी महाराज के एक शिष्य थे जिनका नाम धन्ना मुनि था। वे मारवाड़ में सारण गाँव के निवासी थे। उन्होंने आचार्य श्रीलालजी महाराज के पास आहती दीक्षा ग्रहण की और तेले-तेले पारणा करते थे। लोग कहते थे चतुर्थ आरे का धन्ना तो बेले-बेले पारणा करता था और यह पंचम आरे का धन्ना उससे भी बढ़कर है जो तेले-तेले पारणा करता है। एक बार आत्मार्थी ज्येष्ठमलजी महाराज ब्यावर के सन्निकट 'बरं' गांव में पधारे। उधर धन्ना मुनि जी वहाँ पर अन्यत्र स्थल से बिहार करते हुए पहुँच गये। जंगल में महाराजश्री उनसे मिले। किन्तु धन्ना मुनि को अपने तप का अत्यधिक अभिमान था। महाराजश्री ने स्नेह सद्भावना भरे शब्दों में सुखसाता पूछने पर भी वे नम्रता के साथ पेश नहीं आये। अभिमान के वश होकर उन्होंने कहा--ज्येष्ठमलजी, पूज्य श्रीलालजी महाराज साधु ही सच्चे साधु हैं । अन्य सम्प्रदाय के साधु तो भाड़े के ऊँट है, जो इधर-उधर घूमते रहते हैं । उनमें कहाँ साधुपना है? वे तो रोटियों के दास हैं।
महाराजश्री ने कहा-धन्ना मुनि ! आप तपस्वी हैं, साधु हैं। कम से कम भाषा समिति का परिज्ञान तो आपको होना ही चाहिए। सभी सम्प्रदाय में अच्छे साधु हो सकते हैं। इस प्रकार मिथ्या अहंकार करना उचित नहीं है।
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