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अध्यात्मयोगी सन्तश्रेष्ठ ज्येष्ठमलजी महाराज
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आपश्री का चातुर्मास विक्रम संवत १९६३ में सालावास था । संवत्सरी महापर्व का आराधन उल्लास के क्षणों में सम्पन्न हुआ। प्रतिक्रमण पूर्ण हुआ। रात्रि के दस बजे होंगे कि महाराजश्री ने सभी श्रमणों को और श्रावकों को कहा कि वस्त्र पात्र आदि जो भी तुम्हारे नेश्राय की सामग्री है वह सारी सामग्री लेकर इस स्थानक से बाहर चले जाओ। श्रावकों को भी जो १११ व्यक्ति पौषध किये हुए थे उन सभी को कहा कि बाहर निकलो। श्रावकों ने और श्रमणों ने निवेदन किया-गुरुदेव, रिमझिम वर्षा आ रही है। इस वर्षा के समय हम कहाँ जाय ? और रात भी अंधियारी है।
महाराजश्री ने कहा-मैं कहता हूँ सभी मकान खाली कर दें। चाहे बर्षा है उसकी चिन्ता न करें। महाराजश्री के आदेश से सभी बाहर निकल गये। महाराजश्री उसी मकान में विराजे रहे । जब सभी बाहर चले गये तब महाराजश्री ने हाथ में रजोहरण लेकर सारे मकान को देखा कि कहीं कोई नींद में सोया हुआ तो नहीं है। सभी को देखने के पश्चात महाराजश्री बाहर पधारे और ज्यों ही बाहर पधारे त्यों ही वह तीन मंजिल का भवन एकाएक हड़हड़ करता हुआ ढह गया। तब लोगों को ज्ञात हुआ कि महाराजश्री ने सबको मकान से बाहर क्यों निकाला। यह थी उनकी आध्यात्मिक शक्ति जिससे भविष्य में होने वाली घटना का उन्हें सहज परिज्ञान हो जाता था।
पूज्य गुरुदेव ज्येष्ठमलजी महाराज एक बार समदडी विराज रहे थे। प्रातः काल का समय था । एक श्रावक रोता हुआ धर्मस्थानक में आया-गुरुदेव, मैं आँखों की भयंकर व्याधि से अत्यधिक परेशान हो गया हूँ, अनेक उपचार किये किन्तु व्याधि मिट ही नहीं रही है अब तो आपकी ही शरण है।
आपश्री उस समय शौच के लिए बाहर पधारने वाले थे। आपने कहा-भाई, सन्तों के पास क्या है यहाँ तो केवल धूल है। उस व्यक्ति ने आपके चरणों की धूल लगाई त्यों ही व्याधि इस प्रकार नष्ट हो गई कि उसे पता ही नहीं चला कि पहले व्याधि कभी थी। रोता हुआ आया था और हँसता हुआ लौटा। अनेकों व्यक्ति भूत-प्रेत आदि की पीड़ाओं से ग्रसित थे वे आपश्री से मांगलिक सुनकर पूर्णरूप से स्वस्थ हो जाते थे। पण्डितप्रवर नारायण दास जी महाराज जिनको आपश्री ने दीक्षा प्रदान की थी और उन्हें पण्डितप्रवर रामकिशनजी महाराज का शिष्य घोषित किया था, उनके एक शिष्य थे मुलतानमलजी महाराज। जब ज्येष्ठमलजी महाराज का स्वर्गवास हो गया तब उन्हें एकाएक खून की उल्टी और दस्त होने लगे और भयंकर उपद्रव भी करने लगे। उस समय नागौर से मन्त्रवादी जुलाहा आया। उसने मन्त्र के द्वारा जिन्द को बुलवाया कि तू मुनिश्री को कब से लगा हुआ है ? जिन्द ने कहामैं आज से पाँच वर्ष पूर्व लगा था। इन्होंने मेरे स्थान पर पेशाब कर दिया था। किन्तु इतने समय तक ज्येष्ठमलजी महाराज जीवित थे, उनका आध्यात्मिक तेज इतना था कि मैं प्रकट न हो सका। यदि मैं प्रगट हो जाता तो एक दिन भी मुझे नहीं रहने देते। उनके स्वर्गवास के बाद ही मेरा जोर चला। यह थी उनकी आध्यात्मिक शक्ति जिनसे उनके सामने भूत भी भयभीत हो जाते थे।
आपश्री के प्रमुख शिष्य थे नेणचन्दजी महाराज जो समदडी के ही निवासी थे और लुंकड परिवार के थे। आपका स्वभाव बहुत ही मिलनसार तथा सेवापरायण था। आपके दूसरे शिष्य गढ़सीवाना के निवासी हिन्दूमल जी महाराज थे जो रांका परिवार के थे। हिन्दूमलजी महाराज ने आर्हती दीक्षा ग्रहण करते ही दूध, दही, घी, तेल मिष्ठान्न इन पाँच विगय का परित्याग कर दिया था। साथ ही वे एक दिन उपवास और दूसरे दिन भोजन लेते थे। साथ ही अनेक बार वे आठ-आठ दस-दस दिन के उपवास भी करते थे । किन्तु पारणे में सदा रुक्ष आहार ग्रहण करते थे। बहत ही उग्र तपस्वी थे। श्रद्धेय श्री ताराचन्दजी महाराज ज्येष्ठमलजी महाराज के लघु गुरुभ्राता थे। किन्तु आचार्य पुनमचन्द जी महाराज का, दीक्षा के तीन वर्ष पश्चात् स्वर्गवास हो जाने से आपश्री ज्येष्ठमल जी महाराज के पास ही रहे। उन्हीं के पास अध्ययन किया और गुरु की तरह उन्हें पूजनीय मानते रहे। आपकी उन्होंने बहुत ही सेवा की जिसके फलस्वरूप आपके हृदय से अन्तिम समय में यह आशीर्वाद निकला-ताराचन्द, तेरे आनन्द ही आनन्द होगा।
___ आपके जीवन के अनेकों चामत्कारिक संस्मरण हैं। किन्तु विस्तारभय से मैं यहां उन्हें उटैंकित नहीं कर रहा हूँ। श्री ज्येष्ठमलजी महाराज को अनेक बार संघों ने आचार्य पद ग्रहण करने की प्रार्थना की। किन्तु आपश्री ने सदा यही कहा कि मुझे आचार्य पद नहीं चाहिए। मैं सामान्य साधु रहकर ही संघ की सेवा करना चाहता हूँ। आपमें नाम की तनिक भी भूख नहीं थी। राजस्थान के सैकड़ों ठाकुर आपके परमभक्त थे। आप उपाधि के नहीं समाधि के इच्छुक थे।
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