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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
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साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि ।
परिताप से उन्मुक्त होकर अकथनीय आत्मिक शान्ति उपजो धन का भूखा बने, वो फिर साधु नाहि ॥
लब्ध कर लेते हैं। साधुता के अमर प्रतीक
परहित-साधना में यदि इन्हें कहीं कष्ट का सामना साधु-शब्द का क्या वाच्य है ? तथा साधु शब्द किन- करना पड़े, तो उससे कभी ये जी नहीं चुराते । “परोपकिन आत्मिक गुणों, सम्पत्तियों तथा विभूतियों का परि- काराय सतां विभूतयः" के समुज्ज्वल आदर्श को साकार चायक है ? यह सब संक्षेप में ऊपर की पंक्तियों में उपन्यस्त बनाकर छोड़ते हैं । इनके मन, वचन और कर्म में पूर्णतया कर दिया गया है । साधु शब्द की इस गुण-सम्पदा के एकता के दर्शन होते हैं। सोचना कुछ, कहना कुछ और धनी महापुरुष अतीत काल में अनेकानेक हो चुके हैं । वर्त- करना कुछ यह इन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं है, बक-वृत्ति की मानकाल में भी ऐसे महनीय सन्तजनों का अस्तित्व सुचारु- दुष्प्रवृत्ति से ये सदा दूर रहते हैं। रूपेण उपलब्ध हो रहा है। यह सत्य है
समाज-सेवा के महायज्ञ में भी उपाध्याय श्री समयशैले-शैले म माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे। समय पर अपनी आहुतियाँ डालते रहते हैं । अनेकों शिक्षण साधवो नहि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ॥ संस्थाएँ सेवा-संस्थान, गोशाला, पुस्तकालय इस प्रकार
-चाणक्यनीति २६ अन्य भी अनेकों सर्वजन हितकारी और उपकारी संस्थाओं अर्थात्-जैसे हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते, को जन्म देकर आप श्री अध्यात्मजगत की महान सेवा हर एक हाथी के सिर में मोती नहीं होते और हर एक कर रहे हैं। वन में चन्दन नहीं होते । वैसे सभी जगह सच्चे साधु भी ज्ञान-सम्पदा भी उपाध्यायप्रवर की बड़ी विलक्षण है। नहीं होते।
वर्षों से आप ज्ञानाराधना करते चले आ रहे हैं। आप हमारे परम आदरणीय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी द्वारा विनिर्मित १-धर्म का कल्पवृक्ष जीवन के आङ्गन महाराज भी आज के युग के एक लब्ध प्रतिष्ठित मुनिराज में, २-ओङ्कार : एक चिन्तन, ३-जिन्दगी की मुस्कान, हैं। भारतीय सन्त परम्परा के जाने-माने एक आदर्श ४-सफल जीवन, ५-साधना का राजमार्ग, ६-ज्योतिप्रतीक हैं। इनका अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों ही संयम- र्धर जैनाचार्य, जैन कथाएँ तीस भाग आदि पचासों पुस्तकें साधना की पावन ज्योति से ज्योतिर्मान हो रहे हैं । सम्यग्- तथा ग्रन्थ आप श्री की ज्ञानाराधना के ही समुज्ज्वल प्रतीक दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की निर्मल आरा- हैं। आपकी यह ज्ञान-साधना तथा साहित्य-साधना अज्ञानाधना एवं उपासना द्वारा मोक्ष की साधना में ये सन्नद्ध हैं, न्धकार में भटक रहे जनजीवन को सदा ज्ञान एवं विज्ञान तत्पर हैं। जहाँ ये आत्मकल्याण की ओर अग्रसर दिखाई का महाप्रकाश प्रदान करती रहती है। देते हैं, वहाँ ये जन-जीवन के कल्याण-अभ्युत्थान एवं नव- जैनधर्मदिवाकर, साहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकर निर्माण के लिए भी पूर्णतया सतर्क रहते हैं, अहिंसा, संयम आचार्य सम्राट् परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री आत्माराम जी
और तप की परिपालना ही इनका जीवन धन है, ये महाराज की ज्ञानाराधना तथा साहित्यसाधना मैंने (इन अहिंसा, संयम और तप-स्वरूप त्रिवेणी में स्वयं गोते पंक्तियों के लेखक ने) स्वयं देखी है। वन्दनीय पूज्य लगाते हैं, जो भी व्यक्ति इनकी चरण-शरण में आ जाता आचार्यप्रवर जैनागमों के परम श्रद्धालु महापुरुष थे । अधिक है, उसे भी इस पावन त्रिवेणी में गोते लगाने की वांछनीय क्या, पूज्य गुरुदेव जैनागमों की प्रत्येक पंक्ति के प्रत्येक प्रेरणा प्रदान करते हैं, “तिण्णाणं तारयाण" के पावन लक्ष्य अक्षर को मंत्रतुल्य माना करते थे, इनके जीवन का की पूर्ति के लिए सदा जागरूक रहते हैं, दयालुता की अधिकाधिक समय शास्त्रों के स्वाध्याय में तथा साधुसाकार प्रतिमा हैं, दीन दुःखीजनों के प्रति इनके मानस साध्वियों के अध्यापन में ही व्यतीत होता था। मैं जब में करुणा-गङ्गा सदा प्रवाहित रहती है, किसी व्यक्ति को पूज्य उपाध्याय थी पुष्करमुनि जी महाराज की ज्ञानाजब अन्तर्वेदना से परिव्याकुल देखते हैं, तो उसके वेदना- राधना और साहित्य-साधना की ओर दृष्टिपात करता हूँ, जनित परिताप से इनका कोमल हृदय नवनीत की भांति तो मुझे ऐसा लगता है कि ज्ञानाराधना तथा साहित्यपिघल उठता है।
साधना में जैसी आस्था पूज्य गुरुदेव में मौजूद थी, वैसी वन्दनीय, पूज्यपाद उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी ही आस्था हमारे वन्दनीय पूज्य उपाध्याय श्री जी महाराज महाराज आज के युग के चलते-फिरते कल्पवृक्ष हैं। कल्प- में भी दृष्टिगोचर हो रही है। हमारे महामहिम आचार्य वृक्ष की छाया में जाने वाले लोग जैसे उनसे अपनी समस्त सम्राट पूज्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज ने अध्यात्मयोगी कामनाएं पूर्ण कर लेते हैं, वैसे ही इस महापुरुष के चरण- श्रद्धेय पुष्कर मुनि जी महाराज को जो उपाध्याय पद सान्निध्य में आनेवाले जनजीवन भी आधि-व्याधि-जन्य प्रदान किया है, यह बहुत दूरदर्शितापूर्ण कार्य किया है।
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