________________
Jain Education International
२६
श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
या यूँ कहूँ कि आचार्यदेव ने श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज की ज्ञानाराधना और साहित्यसाधना को सम्मानित करने का एक श्रेष्ठ प्रयास किया है। आचार्य सम्राट श्री की इस सूझ-बूझ का मैं हृदय से अभिवन्दन एवं अभिनन्दन करता हूँ ।
आकर्षक शरीर-सम्पदा -
स्वनामधन्य श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज श्रीवर्धमान स्थानकवासी जैन जगत के एक मनोगीत वरिष्ठ एवं सूर्धन्य सन्त हैं। इनका तपस्वी तेजस्वी और वर्चस्वी जीवन सभी के लिए आदरास्पद बना हुआ है। क्या जैन, क्या अजैन सभी हृदयों में इस महापुरुष के लिए पर्याप्त श्रद्धा है । वैदिकजगत में पुष्कर जैसे एक तीर्थ माना जाता है, वैसे जैनजगत में भी श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज तीर्थस्वरूप हैं । यही कारण है कि हजारों मानस आज अभिनन्दन ग्रन्थ के माध्यम से इनके पावन चरण सरोजों में अपने-अपने श्रद्धासुमन समर्पित करने जा रहे हैं। श्रद्धा परिपूर्ण लाखों जन जीवन प्रायः प्रातःकाल तथा सायंकाल " नमो उवज्झायाणं" के महा स्वर का उद्घोष करते हुए अपनी विनयभक्ति की अभिव्यक्ति करते रहते हैं।
"
परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज का सुगठित शरीर, ऊंचा कद, तेजस्वी गौर वर्ण, उन्नत मस्तक, सबल मांसल भुजाएँ, चित्ताकर्षक मुखमण्डल, दया से सराबोर नयन-युगल तथा कोमल-सा मीठा वाणी विलास, बरबस जन-जीवन को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है । अध्यात्म साहित्य में शरीर-सम्पदा की सुचारुता का जो विश्लेषण मिलता है उसका मूर्त रूप सम्माननीय उपाध्याय जी महाराज के जीवन में स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है । यही कारण है कि जो व्यक्ति एक बार इनकी भव्य मूर्ति के दर्शन कर लेता है, वह मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता ।
प्रगति की पगडण्डियाँ -
परमपूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज वि० सं० १९६७ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी के शुभ दिन, राजस्थान के उदयपुर जिले के अन्तर्गत नान्देशमा नामक गाँव में पैदा हुए थे । बचपन में आपका नाम अम्बालाल था। कौन जानता था कि यही अम्बालाल आगे चलकर
एक दिन श्रमण-भूषण, संयम- शील, चारित्रनिष्ठ मुनिवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के रूप में त्यागवैराग्य का पथिक बनकर अपनी जन्मभूमि को, जाति को, अपने कुल को तथा अपने माता-पिता के नाम को सूर्य के प्रकाश की भांति यत्र, तत्र, सर्वत्र फैलायेगा ? किसको पता था कि यह नन्हा मुन्ना बालक अहिंसा, संयम और तप का विमल प्रकाश घर-घर बाँटकर मानव जगत को उस पावन प्रकाश से प्रकाशमान बनाने का सौभाग्य अधिगत करेगा ? कौन सोच सकता था कि यह नवजात बालक संयम, साधना तथा वैराग्यभावना के बहुमूल्य, चमचमाते आभूषणों से आभूषित होकर एक दिन अपनी आध्यात्मिक छटा से बड़े-बड़े धर्म- नेताओं तथा राजनेताओं को चकाचौंध कर डालेगा ?
१४ वर्षों की छोटी-सी आयु में वि० सम्वत् १६८१ में नान्देशमा गाँव में जन्म लेकर उसे अमर बनाने वाले बालक अम्बालाल ने राजस्थान के विख्यात सन्त, महामहिम परमश्रद्धेय श्री स्वामी ताराचन्द जी महाराज के चरणों में जैन-दीक्षा अङ्गीकार की । दीक्षित हो जाने के अनन्तर श्री अम्बालालजी श्री पुष्करमुनिजी महाराज के नाम से पुकारे जाने लगे । श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज आरम्भ से ही उत्साही, परिश्रमी, विनयी, सक्षम और स्वाध्याय रसिक महापुरुष रहे हैं । अतः प्रगति एवं विकास की पगडण्डियाँ पार करना इन्होंने उसी समय अपना लक्ष्य बना लिया था, गुरुमहाराज की कृपादृष्टि ने उसमें सोने में सुहागे का काम किया। गुरुदेव के पूज्य चरणों का ही प्रताप समझिए कि इन्होंने अध्ययनक्षेत्र में खूब प्रगति की । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं का गम्भीर परिज्ञान प्राप्त कर लिया । लेखनकला, गायन कला तथा वक्तृत्वकला में तो धीरे-धीरे पूर्ण निष्णात हो गये। आज इनके कण-कण से इन कलाओं का यौवन प्रस्फुटित हो रहा है । सन्त जीवन में आचार-विचार की समुज्ज्वलता हो, समयज्ञता, विवेक कुशलता तथा समाजसेवागत पटुता हो तो उस सन्त जीवन का लोकप्रिय हो जाना स्वाभाविक ही है । यही कारण है कि राजस्थानकेसरी, अध्यात्मयोगी परमसन्त उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के व्यक्तित्व सूर्य की चमचमाती किरणें राजस्थान के सीमित आकाश में ही अवस्थित नहीं रहीं, प्रत्युत उन्होंने गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, पंजाब और कर्णाटक आदि प्रान्तों के आकाश को भी अपनी पावन ज्योति से ज्योतिर्मान बना डाला है ।
For Private & Personal Use Only
,
www.jainelibrary.org