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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
साधुता के अमर प्रतीक
जैनमूषण पण्डितरत्न श्री ज्ञानमुनि जी
साधु शब्द की अर्थविचारणा
अहिंसा के अमर देवता श्रमण भगवान महावीर के चतुविध संघ में साधु को सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है । साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन शब्दों में साधु-शब्द को सबसे पहले ग्रहण किया गया है। कारण स्पष्ट है, अध्यात्म जगत में साधुपद का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है । साधु-शब्द की व्याख्या से जैन तथा जैनेतर साहित्य भरा पड़ा है। जानकारी के लिए कुछ एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ"सम्यग्दर्शनादि-योरपवर्ग साधयतीति साधुः " - दशवैकालिक ११५ टीका
अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि योगों द्वारा जो मोक्ष की साधना करता है, उसे साधु कहते हैं ।
"सानोति स्वरकाणीति साधुः "
अर्थात् — जो अपने और दूसरों के आध्यात्मिक कार्यों को सिद्ध करता है, वह साधु कहलाता है । " धर्मवित्ता हि साधवः "
- श्राद्धविधि
अर्थात् - साधु धर्मरूपी धन से युक्त होते हैं । " साधवो दीनवत्सला: "
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जार्गात संयमी ।
यस्यां जार्गात भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ -- श्रीमद्भगवद्गीता २६६ अर्थात् आत्मविषयक बुद्धि रहित संसारी जीवों के लिए रात जो है, उसमें संयमी साधु जागता है, आत्मा का साक्षात्कार करता है। इसके विपरीत, शब्दादि विषयों
अर्थात् - साधु दीनजनों के प्रति वत्सल - दयालु में लगी हुई जिस बुद्धि में संसारी जीव जागते हैं, सावधान होते हैं । रहते हैं, वह बुद्धि आत्मार्थी मुनि सन्त के लिए रात्रि है । "वीतरागभय-फोधः स्थित-धीमुनिरुच्यते"
"विविह- कुलुप्पन्ना साहवो कप्परुक्खा" - नन्दीसूचूर्णि २०१६
अर्थात् - विविध कुल एवं जातियों में उत्पन्न हुए साधु पुरुष पृथ्वी के कल्पवृक्ष हैं। कल्पवृक्षों की भांति सन्तजन जनजीवन की प्रत्येक कामना को पूर्ण करते हैं ।
"श्रेयः कुर्वन्ति भूतानां साधवो दुस्यजानुभिः " - श्रीमद्भागवत ८।२०७ अर्थात् साधुजन अपने दुस्त्यज प्राणों को देकर भी प्राणियों का कल्याण करते हैं ।
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यथा चितं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया । चिले वाचि वायां च साधुनामेकरूपता । सुभाषितरत्नभाण्डागार अर्थात् - जैसा मन भाव होता है, वैसा ही वचन बोलते हैं और वचन के अनुसार ही क्रिया करते हैं, क्योंकि साधुओं के मन, वचन और क्रिया में एकता होती है, अनेकता नहीं होती ।
युगान्ते प्रचलेद् मेरुः कल्पान्ते सप्तसागराः । साधवः प्रतिपन्नार्थाद्, न चलन्ति कदाचन ॥ - चाणक्य० १३।१६
अर्थात् - युग के अन्त में मेरुपर्वत और कल्प के अन्त सातों समुद्र पल जाते है, किन्तु सन्तपुरुष स्वीकृत सिद्धान्त से कभी विचलित नहीं होते ।
में
- गीता २५५
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अर्थात् - जिस व्यक्ति ने राग, भय और क्रोध को जीत लिया एवं जो व्यक्ति निश्यत बुद्धिवाला है उसे मुनि कहा जाता है ।
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राजा और गरीब को समझे एक समान । तिनको साधु कहत हैं, गुरुनानक निरवान ॥
गाँठ दाम बांधे नहीं, नहि नारी से नेह । कहे कबीर वा साधु के, हम चरनन की खेह ॥
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