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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
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मुख करने वाली परमविदुषी सद्गुरुणीजी श्रीशील कर चल दिये। मैंने अपने जीवन में अनेकों बार यह कंवर जी महाराज आदि सतीवृन्द भी सद्गुरुदेव के दर्शन अनुभव किया कि विरोधियों को अन्त में आपके सामने के लिए चिरकाल से पिपासु थे, उनके साथ विहार करता नतमस्तक होना पड़ता है। वस्तुत: आपकी रेखाएँ ऐसी हुआ एकलिंग जी पहुँचा और इधर गुरुदेव श्री भी वहाँ हैं कि विरोधियों की शक्ति कपूर की तरह उड़ जाती है । पर पधारे। उस समय आपश्री तथा आपश्री के गुरुदेव मैंने यह अनुभव किया कि आपश्री सदा ही गुरुसेवा महास्थविर मन्त्री श्री ताराचन्दजी महाराज दो ठाणा ही में तल्लीन रहे, हजारों अन्य कार्य छोड़कर सर्वप्रथम गुरुथे। आप दोनों को देखकर मुझे भगवान महावीर और सेवा को स्थान दिया। भीनासर में वृहत्-साधु-सम्मेलन का गौतम की सहज स्मृति हो आई । आप दोनों गुरु-शिष्य थे, आयोजन था। उस सम्मेलन में श्रमण संघ के मन्त्री होने परन्तु आप दोनों का प्रेम गजब का था। आप दोनों की के नाते आपकी उपस्थिति अनिवार्य थी। अनेक बार शिष्ट आकृति, प्रकृति में इतनी अधिक समानता थी कि अपरि- मण्डल भी उपस्थित हुए। उपाध्याय कवि अमर मुनिजी चित व्यक्ति आपको पिता-पुत्र ही मानते थे। किन्तु का भी अत्यधिक आग्रह था, तथापि गुरु-भक्ति के कारण ताराचन्दजी महाराज ओसवाल थे तो आप जाति से आप सम्मेलन में उपस्थित नहीं हुए और जयपुर में ही ब्राह्मण थे। पर आप दोनों के हार्दिक स्नेह सम्बन्ध को सद्गुरुदेव की सेवा में तत्पर रहे जो आपश्री की गुरुभक्ति देखकर ऐसा ज्ञात होता था कि आप दोनों का सम्बन्ध का ज्वलंत उदाहरण है। इस जन्म का ही नहीं, पर-भव का भी रहा होगा। गुरुदेव महास्थविर गुरुदेव श्री ताराचन्द जी महाराज सिद्ध श्री ताराचन्दजी महाराज जहाँ ओसवाल भोपाल थे, दरिया जपयोगी सन्त थे । वे रात-दिन में दस-दस बारह-बारह घण्टे दिल थे, वहाँ आप सच्चे ब्राह्मण थे, ब्रह्म में लीन रहने तक नवकार महामन्त्र की जप की साधना करते थे और वाले । एक कवि ने सच्चे ब्राह्मण का लक्षण बतलाते हुए वह जप की साधना की विधि उन्हें अपने ज्येष्ठ व श्रेष्ठ कहा भी है
गुरु-भ्राता ज्येष्ठमल जी महाराज से प्राप्त हुई थी। वही "ब्राह्मण सो तो ब्रह्म पहचाने,
जप की विधि पूज्य गुरुदेव श्री को भी गुरु-कृपा से प्राप्त बाहर जाता भीतर आने ।
हुई। आपश्री भी लगन के साथ जप और ध्यान की साधना पांचों वश करी झूठ न भाखे,
करते हैं। आपश्री की साधना ने सिद्धि का संस्पर्श कर वया जनेऊ हृदय में राखे ।
लिया है। यही कारण है कि हजारों व्यक्ति व्याधिआतम विद्या पढ़े पढ़ावे,
और उपाधियों से ग्रसित रोते और बिलखते हुए आते हैं परमातम का ध्यान लगावे ।
और आपकी मांगलिक सुनकर प्रसन्न-मुद्रा में प्रस्थान करते काम क्रोध मन लोभ न होई,
हैं । हजारों व्यक्तियों को इस प्रकार स्वस्थ होते देखा है चरणदास कहें ब्राह्मण सोहि ॥"
आपश्री के मांगलिक श्रवण से। मैं सद्गुरुदेव श्री की सेवा में रहकर धार्मिक अध्ययन आपश्री के प्रधान अन्तेवासी सुयोग्य शिष्य देवेन्द्र करने लगा। मेरा जन्म क्षत्रियकुल में हुआ था किन्तु ऐसे मुनि के सद्प्रयास से विराट्काय अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित गाँव में हुआ जहाँ पर अध्ययन के लिए किसी प्रकार का हो रहा है, यह अत्यन्त आल्हाद का विषय है। आपश्री का अवकाश ही नहीं था। मेरी उम्र सत्रह-अठारह वर्ष की अभिनन्दन ग्रन्थ समारोह सूदूर दक्षिण भारत में होगा और होगयी थी तथापि मुझे वर्णमाला का भी परिज्ञान नहीं हम राजस्थान में हैं, किन्तु हमारे हृदय की कोटि-कोटि था। पूज्य गुरुदेव श्री ने अत्यन्त श्रम कर सर्वप्रथम मुझे मंगल कामना और भावना आपके साथ है। आप हमारे लिपि का परिज्ञान कराया और धार्मिक अभ्यास भी। भूतपूर्व सम्प्रदाय के अधिनायक हैं, श्रमण संघ के उपाध्याय मेरी दीक्षा वि० सं० १९६५ में हुई, उस समय किसी हैं। आपश्री ने सम्प्रदाय की गौरव-गाथा की श्रीवृद्धि की विरोधी व्यक्ति ने पुलिस में रिपोर्ट कर दी जिससे पुलिस है। आपश्री जहाँ भी पधारे हैं वहाँ अपने यश की सौरभ
और थानेदार आदि मेरी दीक्षा को रुकवाने के लिए पहुँचे। छोड़कर पधारे हैं। आपश्री पूर्ण स्वस्थ रहकर जैनधर्म को पुलिस और थानेदार को देखकर कार्यकर्ता भयभीत हो विजय वैजयन्ती फहराते रहे यही शासनेश से करबद्ध गये किन्तु आप श्री के प्रबल प्रभाव से पुलिस और थानेदार प्रार्थना है। जो आये थे दीक्षा रोकने के लिए किन्तु आपके भक्त बन
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