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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
अभी गत वर्ष आपकी श्रेष्ठ सेवाओं से प्रभावित हो वैष्णव संस्कृति का प्रसिद्ध तीर्थ है "पुष्कर" जो अपने पूज्य आचार्यश्री ने आपको "उपाध्याय" पद से अलंकृत निश्चित स्थान पर स्थित समागत जन-जीवन के उद्धार का किया, जो सर्वथा आपके योग्य है ।
प्रतीक माना जाता है, किन्तु जैन संस्कृति के जंगम तीर्थपूज्यप्रवरश्री बड़े ही उन-विहार प्रेमी और घुमक्कड़ राज "श्री पुष्कर" को देखिये, जो, जन-जीवन के घर-घर मनोवृत्ति वाले हैं।
यहाँ तक कि घट-घट में पहुँच कर उनके समुद्धार का कार्य अक्सर हम देखते हैं, सम्प्रदायों के अपने क्षेत्रीय दायरे कर रहा है। हैं और अनेक मुनि उन्हीं दायरों तक अपने को सीमित परम पवित्र तीर्थराज स्वरूप पूज्य प्रवर श्री पुष्कर रखते हुए, जीवन की संध्या तक पहुँच जाते हैं, किन्तु पूज्य मुनिजी महाराज साहब के सार्वजनिक अभिनन्दन समायोजन प्रवर श्री उनमें से नहीं हैं। अपने साम्प्रदायिक पक्ष की के शुभ अवसर पर चरणापित होने वाली पुष्पांजलियों में, हानि को गौण कर भी श्री पुष्कर मुनि जी ने भारत के मेरा एक कुसुम जो अन्तःकरण की सम्पूर्ण श्रद्धा-सद्कामना दूरवर्ती प्रदेशों में विहार किया है।
द्वारा प्रसूत है, समर्पित कर रहा हूँ। विश्वास करता हूँ आज भी आप दक्षिणभारत में जहाँ बहुत ही कम कि यह श्रद्धय के लिए सामान्य किन्तु सम्पर्क के लिए मुनि पहुँच पाते हैं, विहार-रत है।
असामान्य श्रद्धा-कुसुम किसी तरह श्रद्धय की चरण-रज वार्धक्य-सूचक इस उम्र में भी इतना दूरवति अवश्य पायेगा। उग्र विहार करना जिनशासन की महान सेवा के दुर्निवार संकल्प का द्योतक है।
प्रेरणास्रोत : गुरुदेव 0 पं० श्री हीरामुनि जी 'हिमकर'
कितनों के अवलम्ब बने हो,
संयम और तप की साकार प्रतिमा पूज्यगुरुदेव श्री के कितनों को भर अंक लगाया ?
सम्बन्ध में दो शब्द लिखने का मुझे अवसर मिला है, पर स्वयं गरल पोकर कितना,
मेरे मन में यह प्रश्न तरंगित हो रहा है कि इस महान् औरों को पीयूष पिलाया ?
विभूति के सम्बन्ध में क्या लिखू ? मेरे पास ऐसे शब्द नहीं बनकर निर्देशक कितनों को,
हैं जो हृदय के विराट् भावों को व्यक्त कर सके । क्या तुमने मूली राह बताई ?
कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न और कामधेनु की महत्ता को कितनों के तमसावृत्त मन में,
शब्दों के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। एक कवि ने तुमने जीवन ज्योति जगाई ?
सत्य ही कहा हैपरमश्रद्धय महामहिम उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर आकाश करूं' कागज, वनराई करू लेखन । मुनि जी महाराज प्रखर पण्डित, कठोर साधक व निर्मल समुद्र करू' स्याही तो भी, गुरु-गुण लिखे न जायें। मन के उज्ज्वल प्रतीक हैं। वे जन-जन के त्राता हैं, वे सद्गुरुदेव सद्गुणों के आगार हैं, बुद्धि के सागर हैं, भूले-भटके पथिकों के लिए पथ-प्रदर्शक और निर्देशक हैं। जिनशासन के शृगार है । अखण्ड बाल ब्रह्मचारी हैं, शास्त्र उनकी सेवावृत्ति, सरलता, प्रशान्तमुद्रा और कठोर साधना रसिक हैं, आगम के ज्ञाता हैं, संघ के नायक हैं, मेरे अनपढ़ सर्वथा अपूर्व है। भारतीय संस्कृति में तप व संयममय जीवन को घड़ने वाले कुशल कलाकार हैं। उन्हीं की परम जीवन ही श्रद्धा की दृष्टि से देखा गया है। तप-जप व स्वा- कृपा से मैं जिनशासन की सेवा करने के लिए कुछ योग्य ध्याय तथा ध्यान से ही जीवन पावन और पवित्र बनता हो सका हूँ, कवि के शब्दों में कहूँ तोहै। जीवन शोधन के लिए तप-जप और स्वाध्याय से बढ़- नतमस्तक हो मैं कहूँ, गुरु का यह उपकार । कर कोई साधन नहीं है। जो साधक मनसा, वाचा और उरिण हम नहीं हो सकें, बोले बारम्बार ।। कायेन यह साधना करता है, वह अध्यात्म पुरुष है, अध्यात्म- परम श्रद्धं य सद्गुरुवर्य के दर्शन का सर्वप्रथम सौभाग्य योगी है । अध्यात्म-योगी समाज और राष्ट्र के लिए एक विक्रम सम्वत् १९६४ में मिला । उस समय पूज्य गुरुदेव महान् आदर्श और प्रेरणा स्रोत होते हैं।
बम्बई, दक्षिण, खानदेश गुजरात और मध्यभारत की मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ कि ज्ञान, दर्शन, लम्बी यात्रा कर मेवाड़ पधारे थे। मुझे जैनधर्म के अभि
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