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________________ ५५० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड वत् स्थिर रहती है जैसे सुमेरु प्रलय-पवन चलने पर भी हिल नहीं सकता इसी प्रकार श्रावक भी किसी भय अथवा प्रलोभन से अपने धर्म का परित्याग नहीं करता है। उपासकदशाङ्ग सूत्र के अनुसार कामदेव श्रावक अपने धर्म पर इतना सुदृढ़ था कि स्वयं भगवान महावीर ने उसकी प्रशंसा की । कामदेव श्रावक जब एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में धर्मजागरणा कर रहा था उस समय उसके सम्मुख एक भयंकर रूपधारी पिशाच प्रकट हुआ। उसने अपने हाथों में तीक्ष्ण तलवार नचाते हुए कहा-अहो ! कामदेव ! यदि आज तुम अपने शीलव्रत प्रत्याख्यान पौषधोपवास का परित्याग नहीं करोगे तो मैं इस तलवार के द्वारा तुम्हारी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा जिससे असमय में ही तुम मुत्यु को प्राप्त करोगे। इस प्रकार तीन बार कहने पर भी कामदेव अपने धर्म से विचलित नहीं हुआ तब उस देव ने कामदेव के तन के टुकड़ेटुकड़े करके फिर यथावत् कर दिया, हाथी का रूप बना आकाश में उछाला, दन्तशूलों पर झेला, पैरों तले रौंदा, विशालकाय सर्प बनकर हृदय पर डंक लगाया तथापि वह चलित नहीं हुआ तब वह पिशाच एक दिव्य रूप धारण करने वाला देव बना उसके अंग प्रत्यंगों पर किरीट कुण्डल कंगन आदि रत्नाभूषण चमक रहे थे और पैरों व कमर में स्वर्ण घुघरू बज रहे थे । उसकी देह वस्त्र तथा आभूषणों के प्रकाश से प्रकाशित हो रही थीं। उस देव ने कामदेव की प्रशंसा करते हुए कहा- कामदेव ! तुम धन्य हो, पुण्यवान हो, कृतार्थ हो, कृतकृत्य हो कृतलक्षण हो, तुम्हें मनुष्य-जीवन का सुफल प्राप्त हुआ है, तुम्हारा जन्म सार्थक हो गया है, तुम्हारी निम्रन्थ प्रवचनों पर ऐसी अटूट श्रद्धा है । देवानुप्रिय ! स्वर्ग के अधिपति देवेन्द्र देवराज शक्र ने तुम्हारी धर्मश्रद्धा की प्रशंसा की है कि उसकी श्रद्धा को बदलने में कोई भी देव, दानव, गन्धर्व समर्थ नहीं है। वह कभी भी निग्रन्थ प्रवचन से चलित, क्षुभित एवं उससे विपरीत भाव नहीं कर सकता है। इन्द्र की उस बात पर श्रद्धा न करके तुम्हारी परीक्षा लेने आया था और मैंने तुम्हारी धर्मऋद्धि को प्रत्यक्ष देखा है अब तुम मेरा अपराध क्षमा करो। इस प्रकार नमन कर वह देव स्वस्थान को चला गया इस प्रकार देव, असुर, मनुष्य तिर्यञ्च आदि के द्वारा अनेक श्रावकों की धर्मदृढ़ता की परीक्षाएं हुईं किंतु वे अपने धर्म में ध्रुव तारे की तरह अटल रहे यद्यपि श्रमणोपासक देवादि के भयंकर उपसर्गों में भी अटल रहता है तथापि आगमों में उसके लिए आठ आगारों का वर्णन मिलता है पर ये आगार केवल बाह्य दृष्टि से लोक-व्यवहार की शुद्धि के लिए रक्खे होगे इन आगारों के समय भी उसकी आन्तरिक श्रद्धा अणुमात्र भी जिन प्रज्ञप्त धर्म से विपरीत नहीं हो सकती है। अन्य मिथ्या देव, गुरू व धर्म का स्वीकार बिना मन से वह विशेष परिस्थितियों के समय करता है। जैसे कि कार्तिक सेठ ने राजा की आज्ञा से तापस को अपनी पीठ पर खीर की स्वर्णथाल रखवाकर भोजन करवाया। उसने अच्छी तरह से स्पष्टीकरण कर दिया कि मैं राजाज्ञा से ही तपस्वी परिव्राजकका आदर-सम्मान कर रहा हूँ वास्तव में न इनको अपना गुरु स्वीकार करता हूँ और न इनको गुरु व धर्म मानकर नमस्कार ही करता हूँ। मैं एक गृहस्थ हूँ इस अवस्था में राजाज्ञा की अवहेलना करना मेरा कर्तव्य नहीं है। फिर भी गुरू तो मैं उन्हीं को स्वीकार करता हूँ जिनमें पञ्च महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति आदि जिनोक्त सत्ताईस मूलगुण हों। इसी प्रकार देव, गुरु व धर्म की मिथ्या मान्यता को वह कभी स्वीकार नहीं करता । स्वीकार न करने पर भी ये आगार व छूटें विशेष परिस्थिति को संलक्ष्य में रखकर रखी हैं। श्रमणोपासकों के कुछ विशिष्ट गुण - श्रमणोपासकों के कुछ गुण ऐसे विशिष्ट होते हैं जिन्हें प्रमुखता प्रदान की जाती है। भगवतीसूत्र में कुछ प्रत्याख्यान ऐसे बताये गये हैं जिन्हें मूलगुण प्रत्याख्यान कहते हैं और कुछ ऐसे हैं जिन्हें उत्तर गुण कहते हैं । मूल गुण वृक्ष के मूल की भाँति हैं और उत्तरगुण उसके पत्र, पुष्प व फल की तरह हैं। मूल नष्ट होने पर पत्र, पुष्प व फल की आशा नहीं रहती है । मूलगुण प्रत्याख्यान के दो भेद है-सर्वमूलगुण व देशमूलगुण प्रत्याख्यान । उसमें देशमूलगुण प्रत्याख्यान के पाँच भेद हैं-स्थूल प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण स्थूलमैथुनविरमण एवं स्थूल परिग्रहविरमणव्रत । इसी प्रकार देश उत्तरगुण प्रत्याख्यान के सात भेद हैं, वे इस प्रकार हैं-दिशिपरिमाण, उपभोग, परिभोगपरिमाण, अनर्थदण्डविरमण, सामायिक, पौषधोपवास, अतिथिसंविभाग, अपश्चिममारणन्तिक संलेखनाझूसणा आराधना। यह श्रमणोपासकों के मूलगुण व उत्तरगुण हैं। इन गुणों के अतिरिक्त धावकों के अन्य आवश्यक गुणों का वर्णन भगवती के द्वितीय शतक पञ्चम उद्देशक तुगिया नगरी के श्रमणोपासकों के वर्णन में है। वे विराट सम्पत्ति के अधिपति थे, साथ ही वे जीब-अजीव के ज्ञाता, यथायोग्य पुण्य-पाप को उपलब्ध करने वाले, आस्रव, संवर निर्जरा, क्रिया, अधिकरण व बन्ध-मोक्ष में कुशल थे। उनकी निग्रंथ प्रवचन पर इतनी सुदृढ़ श्रद्धा थी कि वे देव असुर नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर किम्पुरुष, गरुड़ गंधर्व, महोरग, आदि देवगणों से भी उनकी श्रद्धा अतिक्रमण नहीं होती थी। तथा उनकी कर्मवाद में ऐसी आस्था थी कि वे देवादि की सहायता भी स्वीकार नहीं करते थे निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति वे पूर्ण निशंक निष्कांक्ष तथा निविचिकित्सक थे अर्थात् धर्म के प्रति अरुचि एवं अप्रीति से रहित थे। उन्हें ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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