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श्रावकाचार : एक परिशीलन
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करता है तब चतुर्थ विश्राम होता है। इस प्रकार श्रावक चार तरह की विश्रान्तियों के द्वारा अपने व्रतों की परिपूर्ण आराधना करता है और जैसे भारवाहक भार को यथास्थान पहुंचाकर निवृत्त होता है वैसे ही श्रावक व्रतों के द्वारा अपूर्व आत्म-शान्ति को प्राप्त करता है।
श्रमणोपासकों का श्रमणों के साथ व्यवहार श्रमणों के साथ श्रमणोपासकों का अनन्य सम्बन्ध होता है। श्रावक के बिना श्रमण का जीवन-निर्वाह असम्भव है। श्रावक श्रमण के जीवन में धर्म की सहायता करते हैं। स्थानांगसूत्र में श्रावकों के सम्बन्ध अनेक तरह के बताये हैं । कुछ सम्बन्ध आचरणीय हैं कुछ सम्बन्ध अनाचरणीय हैं। जैसे कुछ श्रावक श्रमणों के साथ पुत्रवत् वात्सल्य प्रीति रखते हैं वे उनकी सेवा भी करते हैं और उनके चरित्र में दोष देखने पर उन्हें माता-पिता की तरह हितशिक्षा भी देते हैं किन्तु अन्य के समक्ष उनकी निन्दा-विकथा का निवारण करते हैं । ३२ कुछ श्रावक श्रमणों के साथ भ्राता समान तथा मित्र समान व्यवहार रखते हैं ये तीनों व्यवहार श्रमणोपासकों के लिए उपादेय हैं। पर कुछ श्रावक सौत के सदृश छिद्रान्वेषण करके उनसे ईर्ष्या एवं शत्रुता का व्यवहार करते हैं। यह व्यवहार हेय है। इसी प्रकार स्थानांग में अन्य चार प्रकार के श्रमणोपासकों का भी उल्लेख है। वह इस प्रकार है-आदर्श-दणसदृश, पताकासदृश, स्थाणुसदृश एवं खरकण्टक सदृश । इसमें से सर्वप्रथम आदर्श अर्थात् दर्पणसदृश श्रावक आदरणीय होते हैं जैसे दर्पण अपने समीपवर्ती पदार्थों के यथातथ्य प्रतिबिम्ब को ग्रहण करता है वैसे ही श्रावक भी गुरुप्रदत्त तत्त्वज्ञान के उपदेशों को यथावत् धारण करता है। द्वितीय पताकासदृश श्रावक भी अनादरणीय है क्योंकि जैसे ध्वजा-पताका पवन के प्रबल झौंकों से कभी पूर्व तो कभी पश्चिम की ओर उड़ती है इसी प्रकार जो श्रावक सत्य का उपदेश सुनकर कभी उस पर श्रद्धा कर लेता है तो कमी असत्य का उपदेश श्रवणकर उस पर भी श्रद्धा कर लेता है ऐसी चंचल श्रद्धा वाला श्रावक पताकासदृश कहलाता है। जो श्रावक अपने असदाग्रह का कभी त्याग नहीं करता है तथारूप सद्गुणी श्रमणों को भी अपने मिथ्याभिमान के कारण झुकता नहीं है, वंदन नहीं करता है ऐसा लूंठ-स्थाणुवत् श्रावक भी हेय है । जैसे खरकण्टक का जो भी स्पर्श करता है उसी को चुभता है इस प्रकार जो श्रावक श्रमणों के प्रति अप्रीतिकारी तीक्ष्ण चुभता काँटे-सा व्यवहार करता है वह श्रावक खरखण्टक कहा जाता है यह व्यवहार भी हेय है, त्याज्य है।
श्रमणोपासक के तीन मनोरथ जिस प्रकार साधारण व्यक्ति अनेक वस्तुओं की प्राप्ति की आकांक्षा किया करते हैं। जैसे-मुझे इतना धन प्राप्त हो, पुत्र हो, महल हो, उपवन हो, मुझे श्रेोष्ठि, राजा इत्यादि उच्च पद प्राप्त हो । किन्तु श्रमणोपासक इन सभी वस्तुओं को अपनी नहीं मानता है चाहे वह राजा के सम्माननीय सिंहासन पर हो तब भी उसे अनित्य मानता है । उसे संसार की किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं रहती। किन्तु उसे जो इच्छाएं होती हैं वे इतनी उत्कृष्ट होती हैं कि उनकी सफलता होने पर उसे शाश्वत सुख को प्राप्ति होती है । प्रथम मनोरथ में श्रावक यह चिन्तन करता है कि कब मैं अल्प या बहुत अधिक परिग्रह का परित्याग करूंगा। यह चिन्तन सांसारिक जीवों से सर्वथा विपरीत है क्योंकि सांसारिक आत्मा सदैव धन-सम्पत्ति पाने की तृष्णा में उलझा रहता है किन्तु श्रमणोपासक मुक्ति का साधक होता है और वह इन सांसारिक वस्तुओं को दुःखरूप मानता है । जब इनसे निवृत होता है तब वह आत्म-शान्ति का अनुभव करता है । द्वितीय मनोरथ में श्रावक यह चिन्तन करता है कि कब मैं गृहस्थ अवस्था का त्याग करके सम्पूर्ण पापों से रहित अनगार बनकर विचरण करूंगा। तृतीय मनोरथ में श्रावक यह चिन्तन करता है कि-कब मैं जीवन के अन्तिम समय में अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषणाजोषित करके काल अर्थात् मृत्यु की इच्छा से भी रहित होकर विचरण करूंगा। इस प्रकार इन तीनों मनोरथ में किसी भी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं है किन्तु सांसारिक वस्तुओं से परित्याग की भावना है अत: इन मनोरथों को चिन्तन करने वाला श्रमणोपासक अपने पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करके उसके फलस्वरूप महापर्यवसान अर्थात् भव भ्रमण को परम्परा का अन्त कर देता है क्योंकि जिसकी जैसी भावना होती है उसका फल वैसा ही होता है। "यादृशी भावनायस्य सिद्धिर्भवति तादृशी" इस उक्ति के अनुसार श्रावक इस भावना को जब मन, वचन, काया से प्रत्यक्ष रूप में प्रकट करता है तब वह संसार का अन्त कर सिद्धि प्राप्त करता है।
श्रमणोपासकों की धर्मदृढ़ता श्रमणोपासक एक बार जिन व्रतों को ग्रहण करता है, उस प्रतिज्ञा को जीवन भर पालन करता है । यदि उस प्रतिज्ञा से उसे कोई देव, दानव या मानव विचलित करना चाहे तब भी वह चलित नहीं होता। उसकी श्रद्धा सुमेरु
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