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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
आत्मज्ञान : कितना सच्चा, कितना
** मुनि श्री नेमिचन्द्रजी
झूठा
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वर्तमान युग का मानव ज्ञान-विज्ञान में बहुत आगे बढ़ा हुआ है और बढ़ता जा रहा है। ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि के लिए कोई इतिहास पढ़ता है, कोई भूगोल का अध्ययन करता है, कोई ज्योतिषशास्त्र एवं खगोल के अध्ययन से आकाश के ग्रह-नक्षत्र -तारों की गतिविधि का ज्ञान प्राप्त करता है, कोई मानव-विज्ञानशास्त्र को तो कोई मनोविज्ञान को पढ़ता है । इस प्रकार विद्या की विविध शाखाओं में निष्णात बनने का प्रयत्न करता है । परन्तु यह कितने आश्चर्य की बात है कि जो मनुष्य लाखों बातों को जानता है और जानना चाहता है, वह अपने आपको नहीं जानता, अपने साथ अन्य देहधारियों का क्या लेन-देन है, क्या सम्बन्ध है, इस बात को नहीं जानता और न ही प्रायः जानना चाहता है । कोई अपने आपको मिट्टी का पुतला बताता है, कोई कहता है-शरीर ही सब कुछ है । कोई स्वयं को मन या मस्तिष्क ही मानता है, कोई आस्तिक पुरुष शास्त्रों में लिखित बातों को पढ़-सुनकर कह देता है- 'आत्मा के साथ मिले हुए शरीर से युक्त मैं हूँ ।' कोई कहता है-मैं मनुष्य हूँ । कोई अपने का हिन्दू, मुस्लिम, जैन, वैष्णव आदि बताता है, तो कोई हिन्दुस्तानी, पाकिस्तानी, अमेरिकी, अँग्र ेज, जर्मन आदि संज्ञाओं से अपने आपको अभिव्यक्त करता है। इसी अज्ञानता या मिथ्यामान्यता का परिणाम यह हुआ कि आज मनुष्य स्वयं को देह मानकर काले-गोरे के झगड़े में, अमेरिकनरूसी-चीनी- जापानी आदि के संघर्ष में, भाषा और प्रान्त आदि के बखेड़े में या हिन्दू-मुस्लिम आदि के विवाद में पड़ गया है तथा केवल औपचारिक रूप से या परम्परागत रूढ़ि के तौर पर आत्मा की सत्ता मानकर, किन्तु वास्तविक रूप से तो अपने शरीर को ही सब कुछ मानकर इस दृश्यमान शरीर चेष्टाओं को देख कर, तथा दुनिया के इतने कार्यकलाप एवं हरकतें इसी शरीर, मन आदि की देखकर वह कह बैठता है या व्यवहार करता है कि यह सब खेल शरीर और मन का है । इससे भिन्न कोई चीज समझ में नहीं आती। यही कारण है कि मानव अपने-आपको आस्तिक मानते हुए मी तथा आगमों एवं धर्मशास्त्रों आदि के पठन-श्रवण से अपने आपको आत्मा समझते हुए भी व्यवहार आत्मभाव का नहीं करता, आत्मभाव की कोई कल्पना नहीं करता, आत्मभाव की अभिव्यक्ति उसके किसी कार्यकलाप से प्रगट नहीं होती, उसके कार्यों, प्रवृत्तियों या व्यवहारों से प्रायः यही मालूम होता है कि वह अभी देहभाव में ही रमण करता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, द्वेष, घृणा, वैर-विरोध आदि में इतना बुरी तरह फँसा हुआ प्रतीत होता है, कि कोई यह नहीं कह सकता है कि यह व्यक्ति आत्मवादी है । बड़े-बड़े तथाकथित अध्यात्मज्ञानियों के व्यवहार को देखने से असलियत का पता लग जायगा कि उनका अध्यात्मवाद केवल घोटा हुआ है, पोथी का बैंगन है, परोपदेशे पाण्डित्यम् है, थोथे गाल बजाने का है, आत्मा को यों नहीं, यों मानो, इस प्रकार के निरर्थक विवाद का विषय है, अथवा आत्मा आत्मा की रट लगा कर अपने आपको अध्यात्मज्ञानी कहलाने का महज एक रोग है । किन्तु वास्तव में, उनके जीवन व्यवहार में उनके लेन-देन के मामलों में उनकी दैनिक चर्या में उनके प्रतिदिन के कार्यकलापों में, उनके व्यवसाय में या उनके अपने परिवार समाज या धर्मसंघ में कहीं आत्मभाव की, आत्मीयता की, आत्मिक व्यवहार की गन्ध तक देखने को नहीं मिलती । वे यही समझ लेते हैं— आत्मा तो केवल कहने रटने या प्रदर्शन करने की वस्तु है, इसका व्यवहार में कोई उपयोग नहीं है । आत्मा तो निश्चय में ही सीमित रहता है, व्यवहार में आते ही वह छूमंतर हो जाता है । अथवा आत्मा या अध्यात्म तो उपदेश का विषय है, व्यवहार में उसे लाएंगे तो सारा स्वार्थ भंग हो जाएगा, सारी रागद्वे षजनित मान्यताएँ खत्म हो जाएँगी, सारे भेद-विभेद चूर-चूर हो जायेंगे, मन के बाँधे हुए सारे ही हवाई किले ढह जायेंगे, कषायों का सारा खेल ही खत्म हो जाएगा ? क्या आत्मा को मानने, जानने और हृदयंगम करने वाला व्यक्ति दूसरों के साथ मान्यताभेद, कल्पित जातिभेद, रंगभेद, प्रान्तभेद, भाषाभेद, या राष्ट्रभेद को लेकर घृणा, विद्वेष, वैर-विरोध या उपद्रव कर सकता
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