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आत्मज्ञान : कितना सच्चा, कितना झूठा?
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है ? क्या जरा-से विचारभेद के कारण वह दूसरे की मान्यताओं के आधार पर लिखे हुए शास्त्रों को जला सकता है, पानी में डुबा सकता है ? या दूसरी मान्यता या सम्प्रदाय के अनुयायी व्यक्तियों को देखकर मन में विद्वष या वैरभाव ला सकता है ? अथवा क्या अध्यात्मज्ञानी अपने अनुयायियों को दूसरे सम्प्रदाय, मान्यता या धर्म के मानने वालों को मारने-पीटने के लिए उकसा सकता है ? अथवा क्या ऐसा आत्मवादी आत्मधर्म को भूलकर शरीर को ही पुष्ट करने में, उसे ही खान-पान से सन्तुष्ट करने में और शरीर तथा शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों पर मोह, ममत्व या आसक्तिभाव रखने में संलग्न रह सकता है ? क्या आत्मा-आत्मा की रट लगाने वाला तथाकथित आत्मवादी न्याय, नीति या मानवता को भी तिलांजलि देकर, या अपने व्यवसायिक व्यवहार में धोखा-धड़ी झूठफरेब या अन्याय-अनीति चलाकर यह कह सकता है, कि आत्मा का इससे कोई सम्बन्ध नहीं, यह तो शरीर का खेल है, यह तो इस देह की लीला है। परभावों की ओट लेकर क्या कोई यह कह सकता है कि यह चोरी तो मैंने नहीं की, या यह व्यभिचार तो मैंने नहीं किया, यह तो शरीर का काम था, आत्मा-आत्मा में बरत रही है, उसका इन कार्यों से क्या वास्ता ? सचमुच यदि इसी प्रकार का अध्यात्मवाद हो तो वह समाज, राष्ट्र और धर्मसंघ के लिए भयंकर हिंसा और अराजकता का कारण है ! इन्द्रियां-इन्द्रियों में बरत रही हैं, मैं अपनी आत्मा में स्थित हूं, ऐसा कहकर कोई इन्द्रियों से बुरे काम करता है, हानिकारक हरकतें करता है, हाथों से चोरी करता है, किसी का धन छीनता है, किसी को धक्का देता है, पैरों से किसी को कुचलता है, ठोकर मारता है, जीभ से किसी को गाली देता है, निन्दा-बुराई करता है, अपशब्द कहता है, या झूठ-फरेब करता है, धोखा देता है, आँखों से क्रूरता बरसाता है या किसी को बुरी नजर से देखता है, कानों से अश्लील शब्द, गीत, या कामोत्तेजक ध्वनि सुनता है, किसी की निन्दा-बुराई सुनता है, अथवा मन-मस्तिष्क से किसी के प्रति बुरे विचार करता है, द्वेष, वैर-विरोध, घृणा या मोह-ममत्व के भावों में डूबता-उतराता रहता है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि ऐसा व्यक्ति सच्चे माने में अध्यात्मवादी है ?
इन और ऐसे ही प्रश्नों पर गहराई से विश्लेषण और मन्थन करके आप स्वयं निर्णय कीजिए कि आत्मज्ञानी, आध्यात्मिक या अध्यात्मवादी कैसा और कौन हो सकता है ?
आत्मा के विषय में उपर्युक्त प्रश्नावली बहुत ही लम्बी की जा सकती है, परन्तु मूल बात यह है कि आत्मा को जानने-मानने का प्रश्न इतना विकट नहीं है, जितना विकटतम आत्मा को छानने का प्रश्न है। क्योंकि आत्मा को शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं से जब व्यक्ति पृथक्करण करके सोचेगा तो उसे स्वयमेव पता चल जाएगा कि अमुक व्यवहार, प्रवृत्ति या कार्य आत्मा या आत्मा से सम्बन्धित है या आत्मेतर पदार्थ से सम्बन्धित है । जब आत्मवादी आत्मा से अतिरिक्त समस्त पदार्थों को परभाव-पराई चीज मानता है, तो अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार, मद, दम्भ, धृणा, वैर-विरोध, कलह, आसक्ति, ममता और तृष्णा आदि सबके सब पर-भाव ही ठहरते हैं । अपने माने जाने वाले शरीर, परिवार जाति, धर्म-सम्प्रदाय भी कहाँ अपने रहेंगे ? वे भी परमाव की कोटि में गिने जायेंगे । और शिष्य-शिष्या, अनुयायी, शास्त्र, आदि भी तब कहाँ अपने माने जाएंगे? जब व्यक्ति का शरीर, मन, इन्द्रियाँ, मस्तिष्क आदि भी उसके अपने नहीं हैं, वह (आत्मा) इन सबसे भिन्न है। ये सब तो संयोगज हैं; तब सम्प्रदाय, शिष्य-शिष्या आदि कहाँ अपने रहे ? ये सब शरीर के रहते भूल से अपने माने जाते हैं, वास्तव में ये अपने हैं ही नहीं ।
आप कहेंगे कि तब तो अध्यात्मज्ञानी गृहस्थ या साधु कोई भी अपना शारीरिक कार्य नहीं कर सकेगा या शरीर से कोई भी प्रवृत्ति नहीं करेगा, अथवा शरीर से सम्बन्धित सामाजिक व्यवहार से भी अपना हाथ खींच लेगा, आजीविका का कोई भी कार्य नहीं कर सकेगा? संसार से एकदम उदासीन, तटस्थ निश्चेष्ट, और मूक बन कर बैठ जायगा ? नहीं, ऐसा नहीं है। शरीर आदि परभावों के प्रति उसके मन-मस्तिष्क में जो मैं और मेरेपन की, अहंत्वममत्व की वृत्ति जड़ जमाई हुई है, अपने-पराये का भेद गहरा घुसा हुआ है, स्व-पर का राग-द्वेषमूलक वैविध्य उसके दिमाग में बर्फ की तरह जमा हुआ है, उसे उखाड़ना है, उसे पृथक् करना है। जब वह पृथक् हो जायगा, तब आत्मा समत्व अमृतपथ पर चलने लगेगा और तब शरीर आदि को लेकर वह एक के प्रति मोह या राग व दूसरे के प्रति घृणा, द्वेष या ईर्ष्या आदि नहीं करेगा । उसके जीवन में समत्व का व्यवहार अठखेलियाँ करेगा। इसीलिए आचार्य अमितगति ने आत्मा की इस गुत्थी को सुलझाने का सरलतम उपाय वीतराग प्रभु की कृपा से प्राप्त करने की प्रार्थना की है
शरीरतः कर्तुमनन्तशक्ति, विभिन्नमात्मानमपास्तबोषम् । जिनेन्द्र ! कोषादिव खड्गयष्टिं तब प्रसादेन ममाऽस्तु शक्तिः ॥
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