________________
मन: शक्ति, स्वरूप और साधना - एक विश्लेषण
के प्रति राग-भाव की अनुपस्थिति है । दूसरी ओर अभ्यास शब्द भी दमन का समर्थक नहीं है। यदि गीताकार को दमन ही इष्ट होता तो वह अभ्यास की बात ही नहीं कहता । दमन में अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि यदि दमन ही करना हो तो फिर अभ्यास किसलिये ? अभ्यास होता है विलयन, परिष्कार या उदात्तीकरण के लिए । वस्तुतः साधना का लक्ष्य वासना या चैतसिक आवेगों का विलयन ( ममाप्ति) होता है न कि उनका दमन क्योंकि जब तक दमन है तब तक चित्त- विक्षोभ है किन्तु साधना का लक्ष्य तो समाधि है । समाधि वासनाओं के दमन से नहीं, अपितु उनके विलयन से फलित होती है। दमन में वासना रहती है अतः उसमें चित्त विक्षोभ भी रहता है। जबकि विलयन में वासना ही समाप्त हो जाती अतः वह चित्त की शान्त अवस्था है । यही चित्त की शान्त एवं निर्विकल्प अवस्था सम्पूर्ण साधना पद्धतियों का लक्ष्य है । यही समाधि है, वीतरागता है ।
है
૪૪૨
वासनाक्षय या मनोजय का सम्यक् मार्ग
चित्तवृत्तियों या वासनाओं का विलयन ( वासना-शून्यता) कैसे हो ? इस सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में एक समुचित मार्ग प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि मन जिन-जिन विषयों में प्रवृत होता है, उनसे उसे बलात् रोकना नहीं चाहिए, क्योंकि बलात् रोकने से वह उस ओर अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शान्त हो जाता है । जैसे मदोन्मत्त हाथी को रोका जावे तो वह और अधिक प्रेरित होता है, अगर उसे नहीं रोका जावे तो वह इष्ट-विषय प्राप्त करके शान्त हो जाता है । यही स्थिति मन की है। साधक अपने विषयों को ग्रहण करती हुई इन्द्रिय को न तो रोके और न प्रवृत्त करें, अपितु इतना सजग (अप्रमत्त) रहे कि उनके कारण मन में राग-द्वेष की वृत्तियाँ उत्पन्न नहीं, यह कि भी संकल्प-विकार नहीं करे क्योंकि वित्त संकल्पों से व्याकुल होता है, सभी वित्त-विलोभ संकल्पजन्य हैं। अतः संकल्पयुक्त चित्त में स्थिरता नहीं आ सकती है।" वस्तुतः यहाँ आचार्य का मन्तव्य यह है कि चित्त को शान्त करने के लिए उसे संकल्प-विकल्प से मुक्त करना होगा और इस हेतु ज्ञाता द्रष्टा या साक्षी बनाना होगा । जब चित्त या मन द्रष्टा, साक्षी और अप्रमत्त होगा तो स्वाभाविक रूप से वह वासनाओं एवं विक्षोमों से मुक्त हो जावेगा । चित्त - विक्षोभ केवल प्रमत्तदशा में रह सकता है, अप्रमत्तदशा में नहीं। यह बात आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है । जब मन स्वयं अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनेगा तो वह उनका कर्ता नहीं रह जावेगा, क्योंकि एक ही मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता दोनों नहीं हो सकता, जिस समय वह द्रष्टा भाव में होगा उसी समय उसमें कर्ताभाव नहीं रह सकता । उदाहरण के लिए जब हम क्रोध करते हैं, उस समय अपनी क्रोध की अवस्था को जानते नहीं हैं और जब अपनी क्रोध की अवस्था को जानने का प्रयास करते हैं तो क्रोध शांत होने लगता है। मनोविज्ञान का यह नियम है कि जब विवेक जागृत होगा तो वासना क्षीण होगी और जब वासना जागृत होगी तो विवेक क्षीण होगा । अतः साधना में आवश्यकता होती है विवेक को जागृत बनाये रखने की। वासना क्षय का सम्यक् मार्ग वासनाओं का दमन नहीं, अपितु विवेक को जागृत करना है। साधक को अपनी शक्ति वासनाओं से संघर्ष करने में नहीं अपितु विवेक को जागृत करने में लगानी चाहिए। वस्तुतः मन में जब विवेक का प्रकाश होता है तो वासना उसमें प्रवेश नहीं कर पाती, जैसे जब घर का मालिक जागता है तो चोर घर में प्रवेश नहीं करता। जब मन अप्रमत्त या जागृत रहता है तो वासनाएँ स्वयं विलुप्त हो जाती हैं ।
मन की विभिन्न अवस्थायें - वासना से विवेक की ओर, प्रमत्तता से अप्रमत्तता की ओर मन की यह यात्रा अनेक सोपानों से होती है। जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्परा में इस सम्बन्ध में समानान्तर रूप से इन सोपानों का उल्लेख मिलता है | आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में मन की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया है
१. विक्षिप्त मन - यह मन की विषयासक्त और संकल्प-विकल्पयुक्त विक्षुब्ध अवस्था है। इसे प्रमत्तता की अवस्था भी कह सकते हैं ।
२. यातायात मन -मन इस अवस्था में कभी बहिर्मुखी हो विषय की ओर दौड़ता है तो कभी अन्तर्मुखी हो द्रष्टा या साक्षी बनने का प्रयास करता है। साधना की प्रारम्भिक स्थिति में मन की यह अवस्था रहती है । यह प्रमत्ताप्रमत्त अवस्था है ।
३. श्लिष्ट मन - यह चित्त की अप्रमत्त अवस्था है । यहाँ चित्त निर्विषय तो नहीं होता किन्तु उसके विषय शुभ भाव होते हैं । यह अशुभ मनोभावों की विलय की अवस्था है अतः इसे आनन्दमय अवस्था भी कहा गया है ।
Jain Education International
४. सुलीन मन-यहाँ चित्तवृत्तियों का पूर्ण विलयन हो जाता है और चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है । यह उसकी शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा अवस्था है इसे परमानन्द या समाधि की अवस्था भी कहा जा सकता है ।
For Private & Personal Use Only
444444
www.jainelibrary.org