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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने की अवस्था नैतिक विकास में आगे तक नहीं चलती है। जैन विचारणा यह मानती है। कि ऐसा साधक पदच्युत हो जाता है । जिस दमन को आधुनिक मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के विकास में बाधक माना गया है, वही विचारणा जैन दर्शन में मौजूद थी। जैन दर्शनिकों ने भी दमन को विकास का सच्चा मार्ग नहीं माना। उन्होंने कहा, विकास का सच्चा मार्ग वासना संस्कार को दबाना नहीं है अपितु उनका क्षय करना है । वास्तव में दमन का मार्ग स्वाभाविक नहीं है, वासनाओं या इच्छाओं के निरोध करने की अपेक्षा वे क्षीण हो जावें, यही अपेक्षित है। प्रश्न होता है कि वासनाओं के क्षय और निरोध में क्या अन्तर है ।
निरोध में चित्त में वासना उठती है और फिर उसे दबाया जाता है जबकि क्षय में वासना का उठना ही शनैः-शनैः कम होकर समाप्त हो जाता है । आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि में दमन में वासना ( Id ) और नैतिकता ( Super ego ) में संघर्ष चलता रहता है। लेकिन क्षय में यह संघर्ष नहीं होता है । वहाँ तो वासना उठती ही नहीं है । दमन या उपशम में हमें क्रोध का भाव आता है और हम उसे दबाते हैं या उसे अभिव्यक्त होने से रोकते हैं जबकि क्षायिक भाव में क्रोधादि विकार समाप्त हो जाते हैं । उपशमन (दमन) में मन में क्रोध का भाव होता है मात्र क्रोध माव का प्रगटीकरण नहीं होता जिसे साधारण भाषा में गुस्सा पी जाना कहते हैं । उपशम भी गुस्से का पीजाना है। इसमें लोकमर्यादा आदि बाह्य तत्त्व ही उसके निरोध का कारण बनते हैं । इसलिये यह आत्मिक विकास नहीं है अपितु उसका ढोंग है, एक आरोपित आवरण है । क्षायिक भाव में क्रोध उत्पन्न ही नहीं होता है । साधारण भाषा में हम कहते हैं ऐसे साधक को गुस्सा आता ही नहीं है अतः यही विकास का सच्चा मार्ग है। जैन विचारणा के अनुसार यदि कोई साधक नैतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति करता है तो वह पूर्णता के अपने लक्ष्य के अत्यधिक निकट पहुँच कर भी पुनः पतित हो जाता है। जैन विचारणा की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो उपशम मार्ग का साधक आध्यात्मिक पूर्णता के १४ गुणस्थान (सीढ़ियों) में से ११ वें गुणस्थान तक पहुँच कर वहाँ से ऐसा गिर सकता है कि पुनः निम्नतम अवस्था प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है ।" यह तथ्य जैन साधना में दमन की परम्परा का क्या अनौचित्य है इसे स्पष्ट कर देता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि आगम ग्रन्थों में मन के निरोध का उपदेश अनेक स्थानों पर दिया गया है, वहाँ निरोध का क्या अर्थ है ? वहाँ पर निरोध का अर्थ दमन नहीं लगाना चहिये अन्यथा औपशमिक और क्षायिक दृष्टियों का कोई अर्थ ही नहीं रह जावेगा । अतः वहाँ निरोध का अर्थ क्षायिक दृष्टि से ही करना समुचित है।
प्रश्न होता है कि क्षायिक दृष्टि से मन का शुद्धीकरण कैसे किया जावे ?
उत्तराध्ययन सूत्र में मन के निग्रह के सम्बन्ध में जो रूपक प्रस्तुत किया गया है उसमें श्रमणकेशी गौतम से पूछते हैं - आप एक दुष्ट भयानक अश्व पर सवार हैं जो बड़ी तीव्र गति से भागता है वह आपको उन्मार्ग की ओर न ले जाकर सन्मार्ग पर कैसे ले जाता है ?
गौतम ने इस लाक्षणिक चर्चा को स्पष्ट करते हुए बताया है - "यह मन ही साहसिक दुष्ट एवं भयंकर अश्व है, जो चारों ओर भागता है । मैं उसका जातिवान अश्व की तरह श्रुतरूपी रस्सियों से बांधकर समत्व एवं धर्म-शिक्षा से निग्रह करता हूँ ।"
इस श्लोक के प्रसंग में दो शब्द महत्वपूर्ण हैं सम्मे तथा धम्मसिक्खाये । धर्म-शिक्षण द्वारा मन को निग्रह करने का अर्थ दमन नहीं हैं वरन् उनका उदात्तीकरण है। धर्म-शिक्षण का अर्थ है-मन को सद्प्रवृतियों में संलग्न कर देना ताकि वह अनर्थं मार्ग पर जावे ही नहीं। ऐसे ही श्रत रूप रस्सी से बाँधने का अर्थ है— विवेक एवं ज्ञान के द्वारा उसे ठीक ओर चलाना यह समत्व के अर्थ में है । समत्व के द्वारा निग्रहण का अर्थ भी दमन नहीं है वरन् मनोदशा को समभाव से युक्त बनाना है। मन का समत्व दमन में तो सम्भव ही नहीं होता, क्योंकि वह तो संघर्ष की अवस्था है । जब तक वासनाओं और नैतिक आदर्श का संघर्ष है तब तक समत्व हो ही नहीं सकता, जैन-साधना पद्धति तो समत्व (समभाव ) की साधना है, वासनाओं के दमन का मार्ग तो चित्तक्षोभ उत्पन्न करता है अतः वह उसे स्वीकार नहीं है। जैन साधना का आदर्श क्षायिक साधना है जिसमें वासना-दमन नहीं, वरन् वासनाशून्यता ही साधना का लक्ष्य है। गीता में भी मन के निग्रह का जो उपाय बताया गया है वह है, वैराग्य और अभ्यास । वैराग्य मनोवृत्तियों अथवा वासनाओं का दमन नहीं है, अपितु भोगों के प्रति एक अनासक्त वृत्ति है। तस्य वृति या उदासीन वृत्ति दमन से बिलकुल भिन्न है, वह तो भोगों
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