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________________ Jain Education International ४५० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड जैन परम्परा के अनुरूप बोद्ध और हिन्दू परम्पराओं में भी मनोभूमियों का उल्लेख उपलब्ध । बौद्ध दर्शन में जैन दर्शन के समान ही चित्त की १. कामावचर, २. रूपावचर, ३ अरूपावचर और ४. लोकोत्तर- इन चार अवस्थाओं का उल्लेख है जो कि क्रमश: विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन मन की जैन धारणा के निकट है । विस्तार भय से हम इनकी पृथक् विवेचना में पड़ना नहीं चाहेंगे । हिन्दू परम्परा में योग-दर्शन में मन की निम्न पाँच अवस्थाओं का उल्लेख है - १. क्षिप्त २. मूढ ३. विक्षिप्त ४. एकाग्र और ५. निरुद्ध । इसमें भी यदि हम क्षिप्त और मूढ चित्त को एक ही वर्ग में रखें, तो तुलनात्मक दृष्टि से यहाँ भी जैन दर्शन से समानता ही परिलक्षित होती है। जिसे निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है जैन-दर्शन विक्षिप्त यातायात श्लिष्ट सुलीन बौद्ध दर्शन कामावचर रूपावचर अरूपावचर लोकोत्तर ६ धम्मपद चित्तवर्ग ३७ ७ चित्तं वर्तते चित्तं चित्तमेव विमुच्यते । चित्तंहि जायते नान्यच्चित्तमेव निरुध्यते ॥ ८ ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् -२ ६ गीता - ३।४० जैन-दर्शन का विक्षिप्त मन, बौद्ध दर्शन का कामावचर चित्त और योग-दर्शन के क्षिप्त एवं मूढ चित्त समानार्थक है, क्योंकि सभी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में वासनाओं की बहुलता तथा विकलता रहती है । इसी प्रकार यातायात मन, रूपावचर चित्त और विक्षिप्त चित्त भी समानार्थक ही है क्योंकि सभी ने इसे चित्त की अल्पकालिक, प्रयाससाध्य स्थिरता की अवस्था माना है। यहाँ वासनाओं का वेग तथा चित्त विक्षोभ तो बना रहता है किन्तु उसमें कुछ मन्दता अवश्य आ जाती है। तीसरे स्तर पर जैन दर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्ध दर्शन का अरूपावचर चित्त और योग दर्शन का एकाग्रचित्त भी समकक्ष है क्योंकि इसे सभी ने मन की स्थिरता और अप्रमत्तता की अवस्था माना है । चित्त की अन्तिम अवस्था, जिसे जैन दर्शन में सुलीन मन, बौद्ध दर्शन में लोकोत्तर चित्त और योग दर्शन में निरुद्ध चित्त कहा गया है, स्वरूप की दृष्टि से समान ही है क्योंकि इसमें सभी ने वासना-संस्कार एवं संकल्प-विकल्प का पूर्ण अभाव माना है । १० गीता - ६।२७ ११ विवेक चूड़ामणि वस्तुतः सभी साधना पद्धतियों का चरम लक्ष्य मन की उस वासना शून्य, निर्विकार, निर्विचार एवं अप्रमत्त दशा को प्राप्त करना है, जिसे सभी ने समाधि के सामान्य नाम से अभिहित किया है । साधना है-वासना से विवेक की ओर, प्रमत्तता से अप्रमत्तता की ओर तथा चित्त क्षोभ से चित्त शान्ति की ओर प्रगति । मन का यह स्वरूप विश्लेषण हमें इस दिशा में निर्देशित कर सकता है किन्तु प्रयास तो स्वयं ही करने होंगे। साधना केवल स्व प्रयासों से ही फलवती होती है। सन्दर्भ एवं संदर्भ स्थल १ उत्तराध्ययन सूत्र २६ ५६ २ योगशास्त्र (हेमचन्द्र ) ४।३८ ३ धम्मपद यमक वर्ग १ ४ धम्मपद यमक वर्ग २ ५ धम्मपद चित्तवर्ग ४३ - लंकावतार सूत्र १४५ योग-दर्शन क्षिप्त एवं मूढ विक्षिप्त १२ गीता ३१४० १३ देखिये- दर्शन और चिन्तन, भाग १, पृ० १४० तथा भाग २, पृ० ३११ एकाग्र निरुद्ध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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